सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

टेबलेट क्या है

आपको याद होगा जब आपने पहली दफा टीवी देखा था. अगर आप अस्सी के दसक से रुबरू हो तो त़ाला लगाने योग्य काठ के बक्से में बंद श्वेत श्याम टीवी की बात अब तक आपके जहन में होगी। रामायण और महाभारत देखने की ललक, समय पर बक्से का खुलना और फिर वह आधे पौने घंटे का धारावाहिक जिसके सब दीवाने थे. उस समय हमें यह लगता था के तकनीक ने इतना विकास कर लिया है अब क्या होगा भला. लेकिन इसके बाद भीमकाय रंगीन टीवी का युग आया और तब लगा के बस, अब तो सिनेमा हॉल भी घर पर आ गया. उस समय के टीवी की तुलना आप आज के टीवी की तकनीक से करें जहाँ आपको कांच जितनी पतली, पहले से बेहतर पिक्चर क्वालिटी और रख रखाव मे सुविधाजनक टीवी तब मालूम होता है के हम कितने दूर आ चुके हैं. यह एक अनवरत प्रक्रिया है और आगे बढती रहती है.

कहने का मतलब है आधुनिक मनुष्य का विकास उसके तकनीक के क्रमिक विकास के साथ सीधा जुडा हुआ है. अब टेबलेट को ही लीजिये. सिर्फ पांच साल पहले तक इसका मतलब ऐसी वस्तु से था जिसे अंग्रेजी में खाने वाली औषधि का पर्याय समझा जाता था. तब तक दुनिया के अधिकांश देश टेबलेट पी सी की वास्तविकता से अनाभिज्ञ थे. 

पिछले लगभग २० वर्षों में संगणकों (कंप्यूटर) के बढ़ते महत्व ने इसके विकास की गति को तीव्र बना दिया है. पहला कंप्यूटर जिसको चलाने के लिए एक पूरा कमरा लगता था उसके बाद डेस्कटॉप जहाँ मेजों पे रखकर इसका उपयोग संभव हुआ और कई दसकों तक यह दुनियाभर में अत्यंत लोकप्रिय बना रहा, उसके बाद गोद में लेकर काम करने योग्य कंप्यूटर, जी हाँ लैपटॉप का युग शुरू होता है जो कमो बेस आज भी लोकप्रिय है. अब इसके बाद की कड़ी है टेबलेट जहाँ स्लेट की तरह आप इसका इस्तमाल कर सकते है और सब कुछ स्पर्श से संचालित होता है. 

आइये टेबलेट के बारे में कुछ और जानें:

इस छोटे किन्तु शक्तिशाली मशीन की सबसे बड़ी खासियत है इसका अत्यंत सुविधाजनक होना। इंसान के छूने की शक्ति को और बल देता यह तकनीक यह इन्गीत करता है के संगणकों का भविष्य कैसा होगा। अमेरिका में लगभग ४० प्रतिशत आबादी के पास टेबलेट है इसका प्रसार बड़ी तेज गति से दुनिया के सभी देशों में हो रहा है. स्मार्ट फ़ोन और लैपटॉप के बीच की यह कड़ी दोनों ही तकनीकों को अपने में समाहित किये हुए है. आप इसका इस्तेमाल ऑफिस के काम के लिए कर सकते हो, फ़िल्में देख सकते हो, संगीत का आनंद उठा सकते हो, अंतर्जाल से जुड़ सकते हो और मोबाइल की तरह इससे कॉल किया और रिसीव किया जा सकता है. दूसरी बात के मोबाइल के तरह आप इसे अपने साथ ले जा सकते हो इसकी बैटरी चार्ज कर सकते हो इत्यादि इत्यादि। 

स्टोरेज क्षमता की बात करें तो क्लाउड कंप्यूटिंग से आप लगभग जितनी चाहे उतनी चीजें सेव कर सकते है. सम्मुन्नत कैमरा, स्पीच रिकग्निशन, जीपीएस, वाई फाई, ब्लू टूथ और न जाने कितनी सुविधाएं इसके अन्दर पिरोई गयी हैं.

टेबलेट के दाम रु ३००० से शुरू होकर रु १,००,००० तक हो सकते है. यहाँ यह समझना जरूरी है के आपकी जरूरतें क्या है. विकल्पों की भरमार है और अपनी आवश्यकताओं के हिसाब खरीदने से पहले की जांच परख आवश्यक। आप मेरा ब्लॉग 'टेबलेट खरीदने से पहले क्या जानें' को पढ़ सकते हैं. पढने के लिये यहाँ क्लिक करें .   

 

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

दास्ताने नोकिया

फ़िनलैंड का नाम दुनियाभर में बड़े प्रतिष्ठा से इसलिए लिया जाता है की उसकी शिक्षा व्यवस्था का कोई जोड़ नहीं है. शिक्षा को रोज़मर्रा के जीवन से ऐसे जोड़ दिया गया है के पढाई के बाद विद्यार्थी नौकरी की तलाश नहीं करते उन्हें पता होता है उन्हें करना क्या है. बहरहाल दूसरा कारण जो इस छोटे से बर्फानी देश को प्रसिद्ध करता है वह है नोकिया। असल में नोकिया का इतिहास फ़िनलैंड के निर्माण से भी पुराना है. कैसे? अब खुद ही देख लीजिये - नोकिया की स्थापना १८६५ में हुई थी और फ़िनलैंड १९१८ में आजाद हुआ. नोकिया बाद में एक ऐसा मोबाइल ब्रांड बना जो एक दशको तक मोबाइल हैंडसेट का पर्याय बना रहा. जिसने १.२ बिलियन लोगों को आपस में जोड़ देने का करिश्मा कर दिखाया। 

लगभग १५० साल पहले एक छोटे से कागज़ और रबर बनाने के कारखाने से इसकी शुरुआत होती है और अपनी उत्पादों से यह लोगों का विश्वास जीतती है. १९१२ तक नोकिया के पास कोई भी इलेक्ट्रॉनिक अनुभव नहीं था लेकिन तकनीक के त्वरित विकास पर नोकिया की नज़र जरूर थी. सत्तर के दसक तक इसने टेली कम्युनिकेशन में अपनी पैठ बना ली थी और १९८७ तक नोकिया यूरोप में टीवी का तीसरा सबसे बड़ा निर्माता बन चुका था. इसी साल उसने काफी मशक्कत के बाद अपना पहला मोबाइल "मोबिरा सिटीमेन" बाज़ार में पेश किया।  ८०० ग्राम वजनी और लगभग साढ़े चार हज़ार यूरो महंगा यह फ़ोन अगले एक दसक तक दुनिया भर के लोगों का दुलारा बना रहा. भारतीय बाजार अभी भी मोबाइल टेलीफोनी से काफी दूर थे.

१९९१ में फ़िनलैंड के प्रधान मंत्री ने दुनिया का पहला GSM कॉल अपने नोकिया फ़ोन से ही किया और उसके एक साल बाद ही नोकिया ने अपना दूसरा मॉडल बाज़ार में पेश किया - नोकिया १०११ यह सही मायने में एक नया फ़ोन था और इसने मोबाइल हैंडसेट की तकनीक को नयी दिशा दी. पहली बार ये लगा के मोबाइल फ़ोन रोज़मर्रा के इस्तेमाल की वस्तु बन सकती है. नोकिया की लोकप्रियता थी के कमने का नाम ही नहीं ले रही थी. कंपनी ने आनन् फानन में यह विचार किया की उनका अब पूरा ध्यान मोबाइल हैंडसेट की निर्माण पर लगेगा। बाकी के उनके कारोबारों को धीरे धीरे ठिकाने लगा दिया गया. नोकिया की लोकप्रियता का यह आलम था के इसके बिना मोबाइल फ़ोन की कल्पना करना भी मुश्किल लग रहा था. 

इसके बाद फीचर फ़ोन का ज़माना शुरू होता है जहाँ मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल सन्देश (SMS), संगीत, गेम्स के लिए किया जाना शुरू हुआ. यहाँ भी नोकिया ने बाजी मारी। गौर तलब बात यह थी अब सब कुछ इतना आसान नहीं रह गया था. नए ब्रांड और नयी तकनीक ने विकल्पों की भरमार ला दी थी लेकिन नोकिया ने अपने कदम जमाये रखा. फ़रवरी २०११ में माइक्रोसॉफ्ट के साथ नोकिया का पहला करार हुआ और पहली बार नोकिया के विंडोज फोंस को बाजार में उतारा गया. तब तक मोबाइल बाज़ार ने एप्पल फोंस और एंड्राइड फोंस का  स्वाद चखना शुरू कर दिया था और नोकिया को इस बदलते माहौल का अंदाजा देर से हुआ लेकिन हो चुका था. 

बाज़ार में कमाई गयी प्रतिष्ठा अगले कुछ साल तो नोकिया के काम आई लेकिन ताबड़ तोड़ बदलते तकनीक और सैमसंग, एप्पल जैसे प्रतिद्वंदियों ने नोकिया का किला भेदने में कोई कसर नहीं छोड़ा। लुमिया और आशा सीरीज ने भी ज्यादा कमाल नहीं दिखाया और  साल दर साल घाटे को जूझने का परिणाम यह हुआ के न सिर्फ कर्मचारियों को निकाला गया बल्कि हेलसिंकी का नोकिया हेड ऑफिस तक इस बदहाली की बलि चढ़ गये. 

सितम्बर २०१३ में यह ख़बरें आनी शुरू हो गयी थी के माइक्रोसॉफ्ट हो न हो नोकिया को खरीद ले. और यही हुआ, एक दिन खबर आई के माइक्रोसॉफ्ट ने नोकिया का मोबाइल डिवीज़न खरीद लिया है. माइक्रोसॉफ्ट हालांकि यह कहने से बाज नहीं आ रहा के २०१६ तक यह बिज़नस मुनाफे का नहीं हो पायेगा। वही नोकिया जिसने २००७ तक ४० प्रतिशत मोबाइल बाजार पर काबिज था आज यह सिमट कर १५ प्रतिशत रह गया है और स्मार्ट फोंस की हिस्सेदारी तो सिर्फ ३ प्रतिशत। एक ज़माने में नोकिया फ़िनलैंड के GDP का ४ प्रतिशत हिस्सा था जो अब ०.४ प्रतिशत रह गया था. फिन्निश लोगों ने शायद इसके पतन को पढ़ लिया था और वहां की सजग सरकार ने अपना ध्यान दुसरे उद्योगों के विकास की ओर लगा दिया था   

२०१४ तक यह डील पूरी हो जायेगी और नोकिया के लगभग ५००० कर्मचारी एक साथ अपनी कंपनी बदलेंगे। किसके हितों का कितना ख़याल रखा जायेगा यह तो वक़्त ही बताएगा। माइक्रोसॉफ्ट के लिए फ़िनलैंड शायद तीसरा सबसे बड़ा हब हो जाए और यहाँ से फ़िनलैंड एक और नयी शुरुआत करे ऐसा सम्भव है। नोकिया के अधिकारी इस बात को नकार नहीं रहे के कुछ और नया होने वाला है और एक बार फिर एक फिन्निश ब्रांड दुनिया का चहेता बनेगा। पांच में से तीन डिवीज़न न बेचकर नोकिया ने यह जरूर जताया है के पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त! रोविओ एक और बेहद लोकप्रिय फिन्निश ब्रांड जिसने एंग्री बर्ड बनाकर मोबाइल गेम्स को एक नयी परिभाषा दी है साबित करती है  प्रतिभा और सही शिक्षा साथ मिले तो चमत्कारों की अपेक्षा फ़िनलैंड से की जा सकती है.     

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

एप्पल आई फ़ोन ५सी और ५एस - अंगूर खट्टे हैं

लीजिये त्योहारों का मौसम शुरू हो गया. बरसात ने अपना बोरिया बिस्तरा बांधना शुरू कर दिया है और सुबह मे उठना और मुश्किल हो रहा है। सर्दियों की दस्तक साफ सुनाई पड़ने लगी है और हवा मे दशहरे की खुश्बू महसूस की जा सकती है. धान की बोझों का आगमन इस बात का सन्देश दे रहा होता है की खुशिया मनाने के दिन आ गए हैं। हरे पीले धान के पौधों का का बोझ उठाये किसान खुश होकर घरों को लौट रहे होते हैं और नए चावल के मांड की मिठास के बारे में सोच सोच उसके कदम तेज़ होते जाते हैं।

शहर में ऐसा नहीं होता। जिस तरह पूरण मासी और अमावस्या से सरोकार नहीं रहा ठीक वैसे ही नया चावल और नए गेहूं की रोटियों का स्वाद मन भूल सा गया है। यहाँ जीने की सुविधा इतनी ज्यादा है की बदलाव का कोई असर नहीं रह जाता। चीजें अमूमन एक जैसी ही रहती हैं हमेशा। जतन करके यथास्थिति बनाए रखी जाती है। 

आई फ़ोन ५सी और ५एस के बारे में सुनकर खुशफहमी हुई थी की आखिरकार एप्पल ने गरीबों की गुहार सुन ही ली। अब भला इससे सस्ता और इससे अच्छा उपहार आप खुद को क्या दे सकते हैं इस दिवाली। ख़ुशी का बुलबुला तब फूटा जब पता चला भारत अब भी एप्पल की प्राथमिकताओं में से एक नहीं है और भारतवासियों को इसके लिए थोडा और इंतज़ार करना होगा। पर सीमाओं की दुनिया से हम परे हो चुके हैं और कुछ धाकड़ इ कॉमर्स कंपनियां इसे भारतीय उपभोक्ताओं तक पहुचाने से बाज नहीं आ रहीं। दूसरा तरीका यह हो सकता है की आपको मुंबई के मनीष मार्किट जैसी जगह का पता हो। 

सवाल यह है जिस कम कीमत के दावे किये जा रहे थे वह छलावारण जैसा क्यूँ लगता है। पहली बात तो यह की शुरूआती कम कीमत चुकाने के लिए आपको पोस्टपेड प्लान लेना पड़ेगा जिसमे फ़ोन की कीमतें आपसे हर महीने वसूली जायेगी पूरे दो सालों तक। चलिए मान लेते हैं यह कोई आम फ़ोन नहीं एप्पल फ़ोन है और इस तरह लगान वसूलने की उनकी पुरानी प्रक्रिया है। दूसरी बात यह के अगर आप दो साल का करार न करें तब देखिये इसकी कीमत कैसे छलांग लगाती है।

एक और बात आपको नहीं लगता के भारत जो दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा स्मार्ट फ़ोन मार्किट वहां इसे इकट्ठे लांच करना चाहिए था। बाकी सभी कम्पनियाँ तो कर रहीं हैं। हमें क्या एप्पल पचता नहीं? 

दिवाली तक आधिकारिक तौर पर लांच हो जाने वाले ये नए एप्पल फ़ोन अब भी आम आदमी के पंहुच से काफी दूर रहेगा। कहा जा रहा है के ५C की कीमत रु. ४९००० और ५S की कीमत होगी रु. ६४००० .  मैंने तो अपनी बगलें झांकना शुरू कर दिया है। 

आपकी राय बताएं।

बुधवार, 25 सितंबर 2013

डिजिटल दुनिया

 Image: Flickr.com
डिजिटल दुनिया की रफ़्तार देखने  लायक है। सब तरफ कुछ नया हो रहा है। पुराने मापदंड जल्दी जल्दी और पुराने हो रहे हैं और नए नियमों की शब्दावली को रटे रहना अनिवार्य। खून का उबाल है के शांत होने का नाम नहीं लेता, रात को सोते समय डर होता है के कल सुबह तक सबकुछ जो रटा है पुराना तो नहीं पड जायेग। उपापोह का यह आलम है की पूछिए मत। किसी ने सही कहा है "समस्या यह है की आप समझते हैं आपके पास वक़्त है।"

पारंपरिक दृष्टिकोण को सिरे से खारिज किया जा रहा है, मानव सभ्यता को नयी दिशा देने की बातें की जा रही है। चाहे वह शिक्षा हो व्यापार या कला सबके लिए नयी परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं। तकनीक ने हर कोने में अपने पांव फैला दिए हैं। सबसे सकारात्मक पहल यह हुई है के उपभोक्ता और उत्पाद के संबंधों नए ढंग से समझा जा रहा है इस सम्बन्ध को नयी दिशा मिल रही है। सोशल मीडिया के विकास ने उपभोक्ता की आवाज को न सिर्फ प्रखर किया है बल्कि उसे चुनने और न चुनने की महत्वपूर्ण सहूलियत दे डाली है।  उत्पादक और उपभोक्ता दोनों आज एक ही मंच पर खड़े हैं। व्यापार उनके लिए कठिन होता जा रहा है जो उपभोक्ताओं की अपेक्षाओं पर खड़े नहीं उतर रहे। इस विकट परिस्थिति में व्यापार से जुड़े लोगों को आज की तकनीक से और जुड़ना होगा और अपनी पुरानी पड चुकी नीतियों पर पुनः विचार करना होगा। खुद को भी ट्रेन करना होगा और साथ काम करने वाले लोगों को भी।

सीखने की इतनी उपयोगिता शायद पहले महसूस नहीं की गई थी जितना आज के निरंतर बदलते हुए माहौल में। सुखद बात यह है के ट्रेनिंग भी अब सुलभ है। चाहे आप कुछ भी सीखना चाहते हो अंतरजाल की शरण में जाइये और सीख लिजिये। बहुत कम लागत में, अपनी सुविधा और समय के अनुसार। दुनिया के सबसे बड़े और नामी गरमी विश्वविद्यालय और ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट अपने कोर्सेज मुफ्त में ऑनलाइन मुहैया करवा रहे हैं।

हबस्पॉट डॉट कॉम दुनिया की एक सबसे सुप्रसिद्ध डिजिटल सलूशन कंपनीमें से एक है जिसने इनबाउंड मार्केटिंग को दुनिया भर में चर्चा का विषय बना दिया है। इनबाउंड मार्केटिंग से उनका तात्पर्य ऐसी मार्केटिंग रणनीति से है जहाँ अपने वेबसाइट या अपने उत्पाद को इतना प्रखर, सुन्दर और आकर्षक बनाया जाए की लोग उसकी ओर आकर्षक हों आपको ढोल बजाने आवश्यकता नहीं। मार्केटिंग जिसे लोग प्यार करें। कुछ वैसे ही जैसे फेविकल का टीवी विज्ञापन हम सभी को पसंद है चाहे हम कारपेंटर हों या हा न हों।

हबस्पॉट ने इसी साल अपने वेबसाइट पे एक अकादमी पेज को जोड़ा है जहाँ से आप आसानी से इनबाउंड मार्केटिंग  के बारे में पढ़ समझ सकते हैं। यही नहीं सर्टिफिकेशन भी किया जा सकता है और वह भी मुफ्त में। जी हाँ! कहने का मतलब है अच्छी पढाई या अच्छा कोर्स अच्छे पैसे खर्च करने के बाद ही किये जा सकते है इसका मिथक जितना जल्दी टूट जाए उतना ही अच्छा है।

गूगल जैसी नामचीन ब्रांड के पास भी अपना सर्टिफिकेशन कार्यक्रम है जहाँ अब तक आप पूरी पढाई मुफ्त में कर सकते थे, चाहे वो ऑनलाइन किताबें हों या विडियो सब कुछ लेकिन सर्टिफिकेशन करने के लिए परीक्षा देना अनिवार्य था और इसकी कीमत ५० अमेरिकी डालर थी। इसमें बदलाव की घोषणा की गयी है और अब गूगल पार्टनर सर्टिफिकेशन किसी लोकल एजेंसी के साथ मिलकर आप मिलकर मुफ्त में कर सकेंगे। १ अक्टूबर से यह नया प्रावधान लागू हो जाएगा जिससे न सिर्फ व्यवसाय बल्कि डिजिटल मार्केटिंग में रूचि रखने वालों को भी अपने डिजिटल ज्ञान को प्रखर करने का बेहतरीन मौका मिलेगा। 


बस समस्या यह है की हिंदी में यह सब अभी भी उपलब्ध नहीं। मेरी कोशिश रहेगी के मैं गूगल के इस नए पहल के बारे में आपको आगाह रखूँ। यकीन मानिए यह एक बड़े उलटफेर का संकेत है।    

सोमवार, 10 जून 2013

गूगल नेक्सस 4- सैयाँ भये कोतवाल

कुछ ऐसी कंपनियां होती हैं जो बीडी से लेकर बैटल टैंक सब खुद बनाना या बनवाना चाहतीं हैं और ऐसी चाह रखने वालों की कोई कमी नहीं। चाहे अपनी देसी कंपनी रिलायंस हो यह टाटा या फिर विशालकाय विदेशी समूह गूगल या माइक्रोसॉफ्ट। जी हाँ! बिल गेट्स अब माइक्रोसॉफ्ट से उकता कर मलेरिया का निदान ढूंढ रहें हैं। उनका कदम बेशक सराहनीय है लेकिन आपको नहीं लगता की यह एक बदलाव का संकेत है। इस बदलाव का सकारात्मक पहलू यह है की ब्रांड की कार्यकुशलता का फायदा ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँच रहा है और नकारात्मक पहलू यह की 'छोटे की तो खैर नहीं'।

गूगल को पता है के आने वाला दौर स्मार्ट फोंस का है और इससे कन्नी काटना सच्चाई से मुंह छुपाने जैसा है। एंड्राइड को आपाधापी में खरीदकर कंपनी ने यह साबित कर दिया था के मोबाइल फ़ोन तकनीक अब पहले जैसी नहीं रहेगी। हुआ यह है के एंड्राइड अब अमूमन स्मार्ट फ़ोन का पर्याय बन गया है।

गूगल का स्मार्ट फ़ोन ब्रांड बनकर बाज़ार में उतरना एक और दिलचस्प घटना थी, भारतीय बाज़ार हालाँकि गूगल के इस पहल में उपेक्षा के शिकार रहे, लेकिन उत्सुकता थी के कमने का नाम ही नहीं ले रही थी। इस बीच हुआ यूँ के भारतीय बाज़ार में दुनिया भर के सस्ते-महंगे स्मार्ट फ़ोन ब्रांड्स ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली। किसी को जैसे कोई फरक ही न पड़ा हो। गूगल के 'नेक्सस' नामकरण पर शुरुआती विवाद को भी चुपचाप निपटारा करने बाद यह समझ में आने लगा की नेक्सस लम्बे समय तक स्मार्ट फोंस की तकनीक का प्रतिनिधित्व करता रहेगा।

जनवरी 2010 में गूगल ने एच टी सी के साथ मिलकर नेक्सस 1 को बाज़ार में उतारा जिसके स्क्रीन की गुणवत्ता, वौइस् क्वालिटी, फ़ास्ट प्रोसेसर और उसकी कार्यकुशलता को काफी सराहा गया। एक और रोचक बात यह थी की यह किसी खास मोबाइल ऑपरेटर के साथ लॉक्ड फ़ोन की श्रेणी में नहीं आता था।  गूगल नेक्सस 1 हालाँकि एक बहुत उन्नत मीडिया फ़ोन नहीं था लेकिन एक नयी शुरुआत हो चुकी थी। हाँ! गूगल नेक्सस 1 को भारत में नहीं लांच किया गया।

नेक्सस १ 
दिसम्बर 2010 जब एंड्राइड जिन्जेर ब्रेड 2 .3 रिलीज़ हुआ उसी के साथ गूगल नेक्सस एस को सैमसंग के साथ मिलकर अमेरिकी बाजारों में उतारा गया जिसका स्क्रीन एक बार फिर कमाल का था, कॉल क्वालिटी पहले से और बेहतर थी और एंड्राइड जिन्जेर ब्रेड के फीचर्स यूजर को व्यस्त रखने के लिए पर्याप्त थे। आलोचकों की माने तो यह एक बेहतरीन फ़ोन था जिसे और पॉवर फुल बनाया जा सकता था।

गूगल नेक्सस एस
लगभग एक साल बाद नवम्बर 2011 में एक बार फिर सैमसंग के साथ मिलकर गैलेक्सी नेक्सस को पाश्चात्य बाजारों में पेश किया गया। सुपर अमोलेद स्क्रीन और एंड्राइड के नए ऑपरेटिंग सिस्टम आइसस्क्रीम सैंडविच के साथ यह एक प्रभावशाली फ़ोन साबित हुआ जिसमें अच्छे स्मार्ट फ़ोन सारी खूबियाँ मौजूद थीं। इसकी सबसे बड़ी खामियों से एक था इसकी मेमोरी को बढाया नहीं जा सकना। जहाँ एक तरफ यह एक अन्य नेक्सस डिवाइस था वहीँ  दूसरी तरफ सैमसंग के निजी गैलेक्सी फोंस इन सभी परेशानियों को दूर कर बाजारों में धूम मचा रहे थे।

गैलेक्सी नेक्सस
सैमसंग से गूगल का मोहभंग हो चुका था और अब उसे एक ऐसे मोबाइल निर्माता की तलाश थी जो उसके नेक्सस ब्रांड को नयी उड़ान दे सके। पिछले एक दसक में दक्षिण कोरिया  की  कंपनियों  ने जिस तरह विश्व बाज़ार पर हल्ला बोला है वह देखने लायक है चाहे ऑटोमोबाइल हो या मोबाइल सब जगह उनकी तूती बोल रही है। गूगल को एल जी जो खुद भी मोबाइल बाज़ार में अपना आधार ढूँढ रही थी का साथ मिला और दोनों ने मिलकर नेक्सस 4 का सपना देखा। पहली बार एल जी  नेक्सस 4 को भारतीय बाजारों में भी उतारने की भी बात की गयी। मई 2013 में भारतीय बाजारों तक आधिकारिक रूप से पंहुचने वाला यह पहला फ़ोन था जिसकी प्रतीक्षा न जाने कब से की जा रही थी। यह बताना शायद जरूरी नहीं होगा की यह एक प्रीमियम स्मार्ट फ़ोन है और गूगल ने एल जी के साथ मिलकर इसको बनाने में अपनी सारी ताकत झोंक दी है।
एल जी  नेक्सस 4
एंड्राइड 4 .2 के साथ यह एक पॉकेट फ्रेंडली फ़ोन है और इसकी दो वजहें हैं एक की इसकी प्राइस प्रीमियम स्मार्ट फोंस के श्रेणी में सबसे कम है (रु 25,990 मात्र ) और दूसरा यहकी  इसका कम वजन और छोटा (4 .7 इंच सुपर अमोलेद, गोरिल्ला ग्लास 2 स्क्रीन) आकार इसके रख रखाव को आसान बनाता है। इसकी खामियों की बात करें तो पिछले नेक्सस फोंस की तरह आप इसके एक्सटर्नल मेमोरी को बाधा नहीं सकते और न ही इसके 2100 mAH बैटरी को बदला जा सकता है। 4G LTE की कमी भी इसका एक नकारात्मक पहलू जिसकी उपयोगिता आने वाले दिनों में काफी बढ़ने वाली है। लेकिन ये कमियां डील ब्रेकर नहीं हैं  एल जी नेक्सस 4 स्मार्ट फ़ोन का एक बेहतरीन विकल्प है। 

गुरुवार, 16 मई 2013

इ-कॉमर्स का क्रेज

इ-कॉमर्स का क्रेज भारत में बढ़ता ही जा रहा है। पिछले सात सालों से भारत में लगातार लगभग 34 फ़ीसदी की दर से बढ़ता इ-कॉमर्स बाज़ार अब परिचय का मोहताज़ नहीं रहा। नामी गिरामी सर्वेक्षण संस्था फोर्रेस्टर की अगर माने तो भारत में इ-कॉमर्स के बढ़ने की प्रचूर संभावनाए हैं और 2013 से 2016 के बीच इसके विकास की दर 57 प्रतिशत रहेगी जिसपर दुनिया भर की नागाहें रहेंगी। यह एक बड़े उलटफेर का संकेत है।

भारत पारंपरिक रूप से छोटे दुकानों का देश रहा है जहाँ नुक्कड़ के मोदीखाने से घर गृहस्थी का सारा सामान नगद हो या उधार खरीद लेना यहाँ के लोगों को रास आता रहा है। और यह आज भी बदस्तूर जारी है। मुंबई जैसे बड़े नगरों की बात करें तो वहां भी नुक्कड़ के लाला जी की इतनी पूछ है के पिछले कुछ दिनों से LBT (लोकल बॉडी टैक्स) को मुद्दा बनाकर इन्होने सारे शहर की नाक में दम कर रखा है। छुट्टे पैसे लेकर कुछ लाने निकलिए तो पता चलता है दुकाने तो बंद है। अब एक टूथपेस्ट का पैकेट खरीदने के लिए माल्स का चक्कर लगाना मुझे तो रास नहीं आता और अगर छुट्टियाँ हों तो मॉल जाना तीरथ करने जैसा लगता है। वही कतारें, वही भीड़-भाड़, वही आपा-धापी! कहने का मतलब है हम दो राहे पर खड़े हैं जहाँ एक तरफ लाला जी की मुस्कराहट, उनकी बातें, उनका सुबह-सुबह दुकान का खोलना, उधारी, कम तोलना, गुणवत्ता का पैमाना न होना, टैक्स से दूर रहना  इत्यादि बाते है तो दूसरी तरफ मॉल कल्चर जहाँ सबकुछ चम् चमा चम्, गुणवत्ता का भरोसा, होम डिलीवरी,  टैक्स की जिम्मेदारी, ऑफर्स, प्लास्टिक (कार्ड) पेमेंट, प्लास्टिक के बने लोग, सुबह खुलने की सुविधा नदारद इत्यादि इत्यादि हैं।

इ-कॉमर्स इसके आगे की कहानी है जहाँ मोटे तोर पर आप मशीन से खरीदारी करते हो और मशीन से प्राप्त हो सकने वाली सारी सुविधाएं आपको सहज मिल जाती हैं। इ-कॉमर्स की अपार संभावनाओं के बावजूद वास्तविकता यह है की इसका अपेक्षित विकास नहीं हो पा रहा। पिछले छः महीनों में काफी नए इ-कॉमर्स वेबसाइटस आये हैं लेकिन यकीन मानिए इनके बंद हो जाने की रफ़्तार भी त्वरित है। इ-कॉमर्स व्यावसाय के सामने आज कई सारी बाधाएं हैं मसलन भरोसेमंद इन्टरनेट स्पीड की कमी, कार्ड पेमेंट सब नहीं कर सकते, कार्ड पेमेंट करने से डर, डिस्ट्रीब्यूशन के लिए पर्याप्त साधनों का अभाव इत्यादि। ये सारे कारण सही हैं। लेकिन एक और बात जिसपर शायद गंभीरता से विचार नहीं किया गया है वह यह है की अगर हम इन्टरनेट के विकास के पैटर्न को समझें तो हम इस समस्या की थोड़ी विस्तृत जानकारी मिल पाती है और इससे निदान का रास्ता भी आसान हो सकता है


हम शायद यह मान बैठे हैं इन्टरनेट के आगमन की तुरंत बाद ही इ-कॉमर्स परवान चढ़ना शुरू हो जाएगा तो माफ़ कीजिये, यह ग़लत होगा। क्रमगत विकास ही स्वाभाविक विकास है। जल्दीबाजी में घोड़े के आगे गाडी बांध देने से किसी का भला नहीं होगा। मोबाइल, जिसकी विकास यात्रा से हम सब परिचित हैं कैसे शुरू हुआ, मोटोरोला का वो काला  मोबाइल फ़ोन आपको याद होगा जिसका हाथ में होना ही आपको भीड़ से अलग रखने के लिए काफी था। इनकमिंग कॉल्स के भी 16 रु प्रति मिनट लगते थे। इसके बाद एस एम् एस लोकप्रिय हुआ, तब म्यूजिक, कैमरा, गेम्स और अब जाकर इन्टरनेट आया है। ठीक उसी तरह,  इन्टरनेट के आगमन के बाद आमतौर पर लोग पहले ईमेल का इस्तेमाल सीखते हैं तब सर्च इंजन को चलाना तब सोशल मीडिया, गेम्स और तब कहीं ऑनलाइन लेन-देन के लिए उनके मन में भरोसा जागता है। सभी इन्टरनेट यूजर को उपभोक्ता मानकर बनायी गयी रणनीतियां वैसे ही सफल नहीं होंगी जैसे मोटोरोला के उस पहले फ़ोन के लिए इन्टरनेट के आकर्षक प्लान्स घोषित करना जब लोगों ने SMS भेजना ही शुरू किया था।

दूसरी बात यह की इ-कॉमर्स एक उत्तराधुनिक व्यवसाय है जो आज के नये आयामों, नए परिवेश और नयी परिस्थियों का प्रतिनिधित्व करता हैं। हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने पहला एम बी ए प्रोग्राम 1908 में शुरू किया था और यह उस समय की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर की गयी एक अच्छी पहल थी। बड़े उद्योगों का बोलबाला हुआ करता था जिनकी जरूरतों के हिसाब से पाठ्यक्रमों का निर्माण किया जाता था। विडंबना यह है के कमोबेस वही पाठ्यक्रम आज भी  एम बी ए में पढाया जाता है जहाँ कंप्लायंस, क्वालिटी, ऑपरेशंस, मार्केटिंग, एच आर इत्यादि कुछ आधारभूत विषय हैं किसी व्यावसाय को समझने हेतु।

 इ-कॉमर्स का कांसेप्ट एक स्टार्ट अप कांसेप्ट   है जिसको चलने चलाने का कोई तय पैमाना नहीं होता, समय के साथ-साथ व्यवसाय सीखा जाता है और इसका विस्तार किया जाता है। चूक तब हो जाती है जब यह मान बैठते हैं की स्टार्ट अप व्यावसाय बड़े उद्योगों का ही छोटा स्वरुप है। अब फ्लिप्कार्ट को रिलायंस रिफाइनरी का छोटा रूप कैसे माना जा सकता है। उदहारण के लिए  रिलायंस रिफाइनरी जहाँ सबकुछ तय होगा जहाँ प्रोडक्शन के बाद क्वालिटी आएगा और उसके बाद सप्लाई और इस सिलसिले के अगले कुछ सालों का प्लान भी तैयार रहेगा। स्टार्ट अप में आप कैसे प्रोडक्शन शुरू करेंगे जब आपको पता ही नहीं है के उपभोक्ता कौन है? कोई बिज़नस मॉडल तैयार नहीं है। स्टार्ट अप की लड़ाई आर या पार की होती है जिसमे या तो आप पूरे जीत जाते हो या पूरी हार हो जाती है। यहाँ बिज़नस डेवलपमेंट से ज्यादा कस्टमर डेवलपमेंट पर ध्यान देना होगा तब बात बनेगी।

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शनिवार, 11 मई 2013

स्मार्ट फ़ोन खरीदने से पहले क्या जानें...?

मानव सभ्यता की कहानी मोटे तौर पर मानव और उसके सामाजिक सरोकार में आने वाले उतार चढ़ाव की कहानी है। अगर आप सोचते हैं की विश्वजाल,या फिर फेसबुक, ट्विटर, लिंक्डइन इत्यादि ने हमें जुड़ना सिखलाया है तो यह गलत होगा। कंप्यूटर या स्मार्ट फोंस सिर्फ एक माध्यम है जिसने सामाजिक संचेतना को एक नया स्वरूप भर दिया है। मनुष्य हमेशा से प्रगतिशील रहा है और हल काल खंड में उसने नए माध्यमो का अन्वेषण किया है ताकि वह अपने परिवेश, अपने समाज का हिस्सा बना रहे। हाँ! मनुष्य ने नयी परिभाषाएं गढ़ी हैं जिसने इस सामाजिक ताने बाने को नए दृष्टिकोण दिए हैं लेकिन उसकी सोच हमेशा एक ही रही है, जुडाव की। कल तक लैंडलाइन, टाइप राइटर, टेलीग्राम और रेडिओ यह काम कर रहे थे और आज इनका स्थान उससे बेहतर साधनों ने ले लिया है। यह प्रक्रिया अनादि काल से अनवरत जारी है और हम आज जो भी देख रहें हैं, सुन रहे हैं वह सब इसी महान सूत्र की एक कड़ी भर हैं।
स्मार्ट-फ़ोन एक सशक्त माध्यम के रूप में उभरा है और जिसमें हमारे सामाजिक सरोकार को सशक्त करने की अपार संभावनाएं हैं। स्मार्ट-फ़ोन  अपेक्षाकृत एक नया शब्द है जिसे लगभग सारी भाषाओँ ने एकरूपता से  बिना अनुवाद के झंझट में पड़े,  स्वीकारा है। एरिक्सन ने १९९७ में अपने एक लोकप्रिय मोबाइल मॉडल GS 88 के लिए स्मार्ट-फ़ोन शब्द का  इस्तेमाल किया था और वहीं से इसके बारे में लोगों ने जाना।  स्मार्ट फ़ोन से हमारा तात्पर्य ऐसे फ़ोन से है जिसमे कंप्यूटर और मोबाइल दोनों की खूबियाँ एक साथ पिरोई गयी हों।

भारत में मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या का दस प्रतिशत से भी ज्यादा हिस्सा स्मार्ट फोंस को उपयोग करता है और इसका चलन शहरी भागों में ज्यादा है। इसके त्वरित विकास की पुरजोर संभावनाएं हैं और इस बात का एहसास दुनिया की सभी मोबाइल कंपनियों को है। मोटे तौर पर व्यवसाय का मूलमंत्र होता है मुनाफा और मुनाफे के लिए दीन- धर्म जाती और देश सबसे परे सोचना व्यवसाइ होने  का पहला पाठ है। प्रश्न यह है की इस महा समर में एक आम उपभोक्ता अपने लिए कैसे एक सही उपकरण का चुनाव करे और कैसे विज्ञापनों के प्रपंच से बचा रहे। होता यह है के स्मार्ट फ़ोन खरीदने से पहले हम यह चाहते हैं की ज्यादा से ज्यादा तकनीक का समावेश मिले   और फिर ऐसा वक़्त शीघ्र ही आता है जब फ़ोन के एप्लीकेशन बंद रख-रख कर बैटरी बचाते हैं। इसे अगर हम डिजिटल डाइलेमा कहें तो सही लगता है।

स्मार्ट फ़ोन और आम मोबाइल में कोई बहुत बड़ा अंतर है, ऐसा नहीं है। स्मार्ट फ़ोन की जो सबसे बड़ी खूबी होती है वह होता उसका बड़ा स्क्रीन और विश्वजाल से जुड़ने की उसकी क्षमता। आपका काम अगर इन दो सुविधाओं के बिना भी चल सकता है तो स्मार्ट फ़ोन 'खरीदने की चाहत' पर पुनर्विचार किया जा सकता है। 

चलिए समझने का प्रयास करें की कैसे सही स्मार्ट फ़ोन का चुनाव किया जाए : 

मोबाइल ऑपरेटर का चुनाव : अगर आपके लिए स्मार्ट फ़ोन का चुनाव पिछले साल कठिन था तो यकीन मानिए यह अब और कठिन होने वाला है। बाजार में विकल्पों की ऐसी आंधी है के अच्छे अच्छे खरीदारों की धौकनी तेज हो जाए। सबसे  पहले आप यह पता करें की किस मोबाइल ऑपरेटर की कवरेज कैपेसिटी आपके इलाके में सबसे अच्छी है।

 स्मार्ट-फ़ोन कमो-बेस एक ज्ञान चूसक यन्त्र है जिसकी भूख अंतरजाल के बिना मिटती नहीं है।  स्मार्ट फ़ोन को स्मार्ट रखने के लिए सिग्नल की पड़ताल बड़ा जरूरी है वरना संयंत्र कितना भी अच्छा हो, रोता ही रहेगा। यह भी पता करें की आपके शहर में किसका डाटा प्लान सबसे बेहतर है। यह बताना जरूरी नहीं के खर्चे बढ़ेंगे।

ऑपरेटिंग सिस्टम (ओ एस):
स्मार्ट फ़ोन को स्मार्ट उसके सिस्टम्स बनाते है। ऑपरेटिंग सिस्टम यह डिफाइन करता है के आपका स्मार्ट फ़ोन  किस हद तक आपके यूजर एक्सपीरियंस को बेहतर बनाएग। स्मार्ट फ़ोन में इस्तेमाल होने वाले कुछ सबसे लोकप्रिय ओ एस इस प्रकार हैं:

१. एंड्राइड (जेली बीन) : गूगल का एंड्राइड ओ एस आज दुनिया का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला ओ एस है।  पहली खूबी तो यह के एंड्राइड का इस्तेमाल सरल है और सतत अपग्रेड होते इसके एप्लीकेशन किसी भी दूसरे ओ एस से बेहतर है। दूसरी बात यह की ओपन सोर्स ओ एस होने के कारण उपभोक्ता अपनी सुविधा के अनुसार जैसा मन करे वैसे कस्टमाइज  कर सकते हैं। तीसरी सबसे अच्छी बात यह के इसने स्मार्ट फोंस की तकनीक को पॉकेट फ्रेंडली बना दिया है। आपका बजट कोई भी हो अगर आप स्मार्ट फ़ोन खरीदते हैं तो वह एंड्राइड ही होगा।
एंड्राइड जेली बीन 
एंड्राइड का नकारात्मक पहलू यह है की यह एक ओपन सोर्स ओ एस है और यहाँ मैलवेयर या वायरस की समस्या लगी रहेगी। एंड्राइड ओ एस का उपग्रेडेशन प्रक्रिया भी धीमी है और बाकी ओ एस की तरह सारे एंड्राइड फ़ोन अपने आप अप ग्रेड नहीं हो पाते। एक और महत्वपूर्ण बात के एंड्राइड ओ एस बैटरी का दोस्त बिलकुल नहीं होता।

२ . एप्पल (iOS 6): दो कारण है जिसने एप्पल ओ एस को आज भी लोकप्रिय बनाये रखा है। पहला इसका यूजर फ्रेंडली होने और दूसरा एप्लीकेशन की भरमार होना। एप्पल का इस्तेमाल आप पहले दिन से ही बखूबी कर सकते हैं और इसके लिए आपको कुछ सीखने की आवश्यकता नहीं होगी। आज लगभग ८ लाख अप्प्स के साथ यह सभी ओ एस का सिरमौर है। और एप्पल ओ एस हमेशा से बैटरी का दोस्त रहा है।
एप्पल ओ एस 
एप्पल ओ एस एक क्लोज्ड एंडेड ओ एस है इसका मतलब जो कंपनी ने दिया है आपको उसी से काम चलाना होगा आप एंड्राइड की तरह चीज़ों को कस्टमाइज नहीं कर सकते। इसका एक फायदा यह है की अगर कोई अपग्रेडेशन होता है तो आप इसे बिना किसी मिडिलमैन की सहायता से कर सकते है। इसके लिए आपको माइक्रो मैक्स, सैमसंग या फिर HTC के पास नहीं जाना होगा। एक और अहम् बात यह की एप्पल आज भी अपनी कीमतों की वजह से आम फ़ोन नहीं बन पाया है।

३. ब्लैकबेरी 10: यह एक ऐसा ओ एस है जिसे मल्टीटास्किंग के लिए ही बनाया गया है। वैसे भी ब्लैकबेरी ऐसे लोगों का चहेता रहा है जिन्हें कई सारे काम एक साथ ही करने होते हैं। ब्लैकबेरी हब से कई सारे अलग अलग एप्लीकेशन चाहे वह ईमेल हो या गेम्स को बिलकुल अलग अलग रखा जा सकता है इस्तेमाल किया जा सकता है। अच्छी खबर यह भी है के लांच होने के बाद ही इसके पास एक लाख से ज्यादा अप्प्स रेडी थे।
ब्लैकबेरी ओ एस 
ब्लैकबेरी ओ एस 10 फ़ोन महंगा तो है ही इसके बाकी फीचर्स, चाहे वह एंड्राइड सरीखे समुन्नत प्रोसेसर हों या स्क्रीन साइज़ अभी भी ज़माने के पीछे ही चल रहे हैं।

४ . विंडोज फ़ोन 8: फर्स्ट टाइम स्मार्ट फ़ोन इस्तेमाल करने वालों के लिए सबसे अच्छा  ओ एस है जो अपने लाइव टाइल इंटरफ़ेस से आपका मन मोह सकता है। सारे अपडेट आपको होम स्क्रीन पर बड़े बड़े चोकौर बॉक्सेस  में मिल जाते हैं। चटक रंगों के इस्तेमाल से इसका उपयोग और रोचक हो जाता है। बैटरी की खपत बाकी के सभी ओ एस से कम है।
विंडोज 8 ओ एस 
लेकिन जब हम इसकी तुलना एंड्राइड के आधुनिकतम अनुभव से करते हैं तब विंडोज ओ इस पीछे छूट जाता है। विंडोज के अप्प्स की संख्या में काफी वृद्धि हुई है लेकिन दिल्ली अभी भी दूर है।

सही स्क्रीन साइज़ का चुनाव:

स्मार्ट फोंस के स्क्रीन साइज़ दिन ब दिन बड़े होते जा रहे हैं। आप तय कर लें की आपको कौन सा साइज़ सूट करेगा। अगर एक हाथ से इस्तेमाल की सुविधा चाहते हैं तो 4 इंच यह उससे छोटे स्क्रीन से भी काम चल जाएगा लेकिन आज के समुन्नत स्मार्ट फोंस की दुनिया में चार इंच से छोटा फ़ोन लेकर फ़ोन के फीचर्स का सही मज़ा नहीं ले सकते।

चाहे गेम्स हों फिल्म हों, टाइपिंग हो या अप्प्स का प्रबंधन ४ या उससे बड़ा स्क्रीन साइज़ इस्तेमाल को आसान ही नहीं मजेदार भी बना देता है। यह एक व्यक्तिगत चुनाव का मामला है लेकिन सारे विकल्पों को जांच परख कर ही निर्णय लें।

प्रोसेसर:

स्मार्ट फ़ोन का दिल और दिमाग उसका प्रोसेसर होता है। अब मॉडल देखकर फ़ोन खरीदने के जमाने गए, फ़ोन का प्रोसेसर क्या है उसका RAM कितना है, इन सब बातों की जानकारी आवश्यक हो गयी है। अगर आपके पास क्वैड कोर कुअलकॉमं स्नेपड्रैगन 600 हो तो यह और किसी ड्यूल कोर प्रोसेसर से बहुत ज्यादा काम कम समय में कर पायेगा। गेमिंग और मल्टीटास्किंग का मज़ा ही कुछ और होगा।
हाई एंड स्मार्ट फोंस आज 2GB RAM और 16 GB स्टोरेज के साथ ही आते हैं लेकिन 1GB RAM और 8 GB स्टोरेज भी अच्छा विकल्प है। मेगापिक्सेल की माया में न फंसें और तस्वीरें खुद लेकर देखें और परखें, 5-6 मेगापिक्सेल आम उपयोग के लिए पर्याप्त है।

बैटरी :

ज़रा सोचिये! सबकुछ हाई क्वालिटी है आपका फ़ोन सबकुछ कर सकता है लेकिन लंच टाइम हुआ नहीं के बैटरी ने दांत निपोर दिया। अब भला ऐसा संयंत्र किस काम का? स्मार्ट फोंस रक्त पिपासु होते हैं और इनको जितना बैटरी पिलाइए उतना ही कम है लेकिन ऐसे भी क्या जल्दी के हम इसका उपयोग ही न करने पायें। औसतन स्मार्ट फोंस की बैटरी ६ -७ घंटे तक चला करते हैं लेकिन कुछ एक आठ घंटे तक भी चल जाते है। आपकी उपयोगिता इसका पैमाना तो है ही इसके अलावा आपका यह जानना भी जरूरी है के बैटरी की पॉवर कितनी बताई गयी है।

2000 mAH से अधिक जो हो सब अच्छा है। यह भी पता करें के पॉवर सेविंग विकल्प फ़ोन में उपलब्ध है या नहीं। आश्वस्त हो लें के बैटरी निकालने की सुविधा है या नहीं, कई उच्च स्तरिय फ़ोन बैटरी निकालने की सुविधा नहीं देते। बैटरी लाइफ स्कोर के बारे में ऑनलाइन चेक करना भी एक अच्छा हल है।

स्मार्ट फ़ोन खरीदने से पहले थोडा सा होमवर्क कर लिया जाए तो चीजें काफी आसान हो सकती हैं और  विज्ञापनों और सेल्स मैन की बातों में आने से बचा जा सकता है।

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मंगलवार, 7 मई 2013

गूगल ग्लास (Google Glass)

दादाजी किसान थे और उन्हें चश्मे की जरूरत ही नहीं पड़ी। उनकी दिनचर्या निर्धारित रहती थी जिसमे रमें रहना ही उनकी ज़िन्दगी थी। सुबह चार बजे उठना बैलों को जगाना खुद के लिए कुछ करने से पहले अपने बैलों को अपने हाथों से काटी हुई कुट्टी खिलाना। दोपहर तक हल चलाकर जब आते तो उनका मिजाज़ थोडा गरम रहता कुछ गलती हुई नहीं के बरस पड़ते। खाना खाने के बाद थोडा आराम करते और फिर बैलों की खातिरदारी शुरू हो जाती। देखने में उन्हें कभी कोई दिक्कत पेश नहीं आई। वहीँ दूसरी तरफ दादी थीं के वो चश्में के बिना अधूरी थीं। इतना मोटा शीशे वाला चश्मा पहनती के जिन्हें अगर गलती से भी हम ट्राई करते तो तुरंत ही हमारी आखें दुखने लगतीं।  

चश्मा कहें, ऐनक कहें या कुछ और लोग आज भी इसे आखों के बीमारी की दवा मानते हैं। शहरों में हालाँकि इस दावे को न स्वीकारा जाये जहाँ ऐनक जीवन का हिस्सा इसलिये बने हैं क्यूंकि लोग इसकी उपयोगिता से वाकिफ हैं और सबसे जरूरी बात उनके पास खर्च करने के लिए पैसे हैं। गौर करने वाली बात यह है के गूगल सरीखी कंपनी अगर यह मानती है के उनकी नयी पेशकश गूगल ग्लास से लोगों को ऐनक के एक अनूठे प्रयोग का मौका मिलेगा तो यह बात देखने लायक होगी।

सिर पर पहनने वाले संयत्रों (HMD- Head-Mounted Display) की परिकल्पना इक्कीसवीं सदी के शुरू होते होते ही कर ली गयी थी और अगस्त २०११ में एक व्यावहारिक (प्रोटोटाइप) संयंत्र को पेश भी किया गया था हालाँकि ८ पोंड वजनी यह डिवाइस ज्यादा लोकप्रिय तो नहीं हो पाया लेकिन एक नयी शुरुआत हो चुकी थी। इस पूरे प्रयोग का मकसद था डाटा को डेस्कटॉप और लैपटॉप के शिकंजे से आज़ाद कर देना और सारी जानकारी सीधे हमारी आँखों के सामने पेश कर देना। गूगल जैसी कंपनी का इसमें शामिल हो जाना इस तकनीक के लिए जीवनदायी साबित हुआ है गूगल ग्लास प्रोजेक्ट से इस HMD तकनीक को नयी दिशा मिली है।  गूगल ग्लास बुनियादी तौर पर एक चश्मे में फिट किया हुआ कैमरा, माइक्रोफोन, डिस्प्ले, बैटरी है जो आपके मौखिक निर्देशों का पालन करता रहता है। आईये यह विडियो देखें और गूगल ग्लास को थोडा और समझने का प्रयास करें:  
                                  
पिछले साल अप्रैल में गूगल ग्लास का पहली बार परीक्षण शुरू किया गया जिसमे तकनीकी रूप से काफी नयी चीज़ों को जोड़ा गया था। गूगल इस बात के दावे पेश करता है के गूगल ग्लास की कीमतें आम स्मार्ट फ़ोन जितनी ही होगी और इसका वजन भी एक साधारण चश्मे जितना ही या फिर उससे भी कम होगा। HD विडियो प्लेयर से लैश इसमें वह सारी खूबियां होंगी जो एक अच्छे मोबाइल डिवाइस में मिलता है और शायद उससे भी अधिक।

गूगल ग्लास 
मसलन सूचनाओं के सम्प्रेषण का अनुभव एकदम जीवंत होगा। कैमरे में हूबहू आप वही तस्वीरें ले पायेंगे जो आप देख रहे होंगे। चलते फिरते बिना रुके आप मीटिंग्स का हिस्सा हो सकते है लोगो से बात कर सकते हैं उन्हें फाइल्स या सन्देश भेज सकते हैं सिर्फ बोलकर। अपने स्मार्ट फ़ोन को गूगल ग्लास से सिंक करके आप सूचनाओं का आदान प्रदान आसानी से कर पायेंगे। नए अप्प्स जो खास तौर पर गूगल ग्लास के लिए बनाये जा रहे हैं इससे इसकी उपयोगिता और बढ़ जायेगी।

"कभी किसी को मुक़म्मल जहाँ नहीं मिलता ..." जी हाँ आलोचकों का मानना है के गूगल कभी भी एक डिजाईन कंपनी नहीं रही है और उससे एक बहुत अच्छे डिजाईन की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता की यह संयंत्र पोर्टेबल या पॉकेट फ्रेंडली तो नहीं पायेगा यहाँ मेरा मतलब कीमतें नहीं, रख रखाव की समस्या है। ऐनक भला कब और कहाँ कहाँ लगाये फिरेंगे आप। तय है के यह दुनिया से आपको जोड़े रखने में सक्षम होगा लेकिन आस पास होने वाली घटनाओं से आप पहले की तरह अपिरिचित रहेंगे। उदहारण के तौर पर सड़क पार करते समय आप आने जाने वाली गाड़ियों पर ध्यान न रखकर फेसबुक अपडेट चैक करते रहेंगे। पडोसी का हाल जानना अब भी मुश्किल है तब भी रहेगा हाँ! मौसम का हाल जानना सहज हो जाएगा। कहने का मतलब यह आपको आपके परिवेश से काट कर दुनिया से जोड़े रखेगा। अमूमन आज की सभी तकनीकें मिलजुल कर इसी जुडाव व अलगाव का खेल खेलने में व्यस्त हैं। 

अच्छा हुआ मेरे बाबा नहीं रहे वरना उन्हें भी अपने बैलों, अपने खेतों को छोड़कर विडियो चैट में व्यस्त रहना होता। दादी के मोटे चश्मे में यह तकनीक समा पाएगी या नहीं यह भी अभी तक गूगल ने बताया नहीं है।

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सोमवार, 29 अप्रैल 2013

बिग डेटा (BIG Data)

सन १६१३ में जब रिचर्ड ब्रैथ्वैत ने अपनी किताब में पहली दफा कंप्यूटर शब्द का इस्तेमाल किया था उस समय इसके मायने बिलकुल इतर थे। कंप्यूटर से उन्होंने तात्पर्य ऐसे मशीन से निकाला था जो गणनाएं करने में निपुण था।  हिंदुस्तानी भाषा में कमोबेस मुनीम शब्द इसके बिलकुल करीब बैठता है। रोचक बात यह है के २०वीं  शताब्दी के शुरुआत तक कंप्यूटर के शब्दार्थ में कोई बदलाव नहीं आया। डाटा का संवहन और सञ्चालन बड़े स्तर पर कंप्यूटर (संगणकों) द्वारा ही सम्भव हुआ जो कालांतर में इतना विकसित हुआ है के आज हमें बिग डाटा को समझने और उसका सुचारू ढंग से उपयोग की जुगत ढूंढनी पड़ रही है।    

बड़ा डाटा या बिग डाटा से तात्पर्य डाटा के ऐसे प्रबल प्रवाह से है जो समय के साथ गुणात्मक वृधि करता हुआ असीमित हो चला है। किलो बाइट (kb) से शुरू हुआ डाटा ट्रान्सफर का सफ़र अब एक्सा बाइट तक पहुँच चुका है। साल २०१२ में ही अगर हम कुल डाटा प्रवाह की गणना करें तो यह एक्सा बाइट में जाता है। दूसरे शब्दों में मानव सभ्यता के विकास से लेकर २०११ तक के कुल डाटा को भी अगर हम इकठ्ठा करें तो यह साल २०१ २  के डाटा प्रवाह से कई गुणा कम साबित होगी। विश्व भर में प्रति व्यक्ति डाटा खपत में बहुत बड़ा बदलाव आया है और अब समस्या यह है की इस डाटा दानव को वश में कैसे किया जाए।  

विज्ञान हमेशा से हमें आगाह करता रहा है की इसका उपयोग वरदान और अभिशाप दोनों उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है और बिग डाटा के सम्बन्ध में भी यह बात सौ प्रतिशत सही साबित होती है। बिग डाटा का आकार बड़ा होना ही इसकी सबसे बड़ी खूबी  है इसके विभिन्न आयामों का विश्लेषण करके हम दुनिया का नक्शा ही बदल दे सकते है। चाहे कला हो या विज्ञान अगर हमारे पास सूचनाओं का विस्तृत भण्डार होगा तब हम न सिर्फ वर्तमान बल्कि भविष्य का आकलन भी सटीकता से कर पायेंगे। चाहे किसी उत्पाद सम्बंधित राय शुमारी हो या मौसम की पेचीदगी का आकलन, हमारे पास ऐसे बहुत सारे सवालों के सटीक जवाब मिलने शुरू हो जायेंगे जिनके विषय में आज हम सिर्फ कयासों की भाषा बोलते हैं। 

दूसरी तरफ इसके सबसे बड़े दुष्परिणामों में भी शुमार होगा इसकी व्यापकता जिसपे हमारा संपूर्ण नियंत्रण नहीं होगा। डाटा में गलतिओं की संभावनाएं ज्यादा होंगी और इसके दूरगामी असर होंगे। बीग डाटा हमारे जीवन का हिस्सा बना जा रहा है और हमें ऐसे जानकारों की बड़ी संख्या में आवश्यकता होगी जो इसका सार्थक विश्लेषण कर सकें और इसके बुरे प्रभाओं से हमें आगाह कर सकें।


वैल्यू 
मैट्रिक्स 
1000
k
किलो 
10002
M
मेगा 
10003
G
जिगा 
10004
T
टेरा 
10005
P
पेटा 
10006
E
एक्सा 
10007
Z
जेट्टा 
10008
Y
योट्टा 


रविवार, 28 अप्रैल 2013

तकनीक की दुनिया और हिंदी लेखन

तकनीक पर आधारित लेखों का सरस होना इसकी आवश्यक आवश्यकताओं में शुमार नहीं है। यह अपेक्षा की जाती है के विज्ञान तथ्यों की भाषा बोले और यह भाषा अगर बेरहम भी हो तो मान्य होगी। इस परंपरागत सोच में बदलाव के बीज बोये जा रहें हैं और इसका श्रेय आज के सम्मुन्नत माध्यमों को मिलना चाहिए जिसने लेखक और पाठक दोनों को बड़ी तेजी से आपस में जोड़ने का काम किया है। अंग्रेजी भाषा में लिखे गए आज के तकनीकी या समालोचनात्मक लेखों ने एक नयी सरस विधा को जन्म देने का संकेत दिया है। जिसके बड़े सार्थक परिणाम सामने आये हैं। फ्रेंच, स्पेनिश और अन्य पाश्चात्य भाषाएँ बड़ी तेजी से इसका अनुकरण कर रहीं हैं और लोगों का रुझान इस बात का संकेत देता है की विज्ञान और कला का अगर सही मिश्रण किया जाए तो तकनीकी लेखन में अपार संभावनाएं हैं।

विश्वजाल पर हिंदी लेखन की परंपरा का विकास अब शुरू हो रहा है और जरूरत इस बात की है की हम भी इस लोकप्रिय एवं सार्थक लेखन पर गहराई से विचार करें जहाँ विज्ञान और कला क्रियात्मक रूप से एक दूसरे के पूरक बने। तकनीक सम्बन्धी हिंदी लेखन को हाशिये पर रख कर हम न सिर्फ हिंदी भाषा बल्कि उससे प्रभावित होने वाले करोडो लोगों की अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे।



4G तकनीक का आगमन हमारी ज़िन्दगी पर गहरा प्रभाव डालने वाला है। जीवन का कोई पक्ष इससे अछूता नहीं रहेगा चाहे शिक्षा का माध्यम हो सरकार की नीतियां, चाहे टेलिकॉम सेक्टर हो या सामाजिक ढांचा सब तरफ  इसके  बहुआयामी असर होंगे। आवश्यकता इस बात की है की लोगों के पास पंहुच रही त्वरित सूचनाएँ उनकी भाषा में पंहुचे ताकि सूचनाओं का आदान प्रदान भी त्वरित हो। 

दुनिया में लगभग ६० करोड़ लोग हिंदी जानते समझते हैं जिसमे ५० करोड़ से ज्यादा भारत में है। विकिपीडिया यह कहता है के हिंदी एक विश्व भाषा बनने की तरफ अग्रसर है। भाषा विकास क्षेत्र से जुड़े वैज्ञानिकोंका मानना है के आने वाले समय में विश्वस्तर पर अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व की जो चन्द भाषाएँ होंगी उनमें हिन्दी भी प्रमुख होगी। कटु सत्य यह है की जैसे जैसे इन्टरनेट अपने पावं फैला रहा है और जिस रफ़्तार से इन्टरनेट पर हिंदी भाषा पढने वालों की संख्या में इजाफा हो रहा है उस हिसाब से हिंदी भाषा में सृजन और लेखन नहीं हो रहा। तकनीक सम्बन्धी लेखन की हालत तो और खस्ता है।

समय आ गया है जब विश्वजाल पर हिंदी लेखन को गंभीरता से लिया जाए और सृजन को बढ़ावा दिया जाये। हिंदी को नीरस अनुवादकों के चंगुल से निकालना भी एक चुनौती है जो हमारे सामने मुंह बाए खड़ी है। आइये विकिपीडिया के निम्नलिखित तथ्यों पर विचार करते हुए हिंदी लेखन की परंपरा की नयी शुरुआत का शंखनाद करें जहाँ तकनीक की पेचीदगी को अपनी भाषा में सरलता से आम जन तक पंहुचाया जा सके :


"हिन्दी की विशेषताएँ एवं शक्ति

हिंदी भाषा के उज्ज्वल स्वरूप का भान कराने के लिए यह आवश्यक है कि उसकी गुणवत्ता, क्षमता, शिल्प-कौशल और सौंदर्य का सही-सही आकलन किया जाए। यदि ऐसा किया जा सके तो सहज ही सब की समझ में यह आ जाएगा कि - 

 - संसार की उन्नत भाषाओं में हिंदी सबसे अधिक व्यवस्थित भाषा है
 - वह सबसे अधिक सरल भाषा है
 - वह सबसे अधिक लचीली भाषा है
 - वह एक मात्र ऐसी भाषा है जिसके अधिकतर नियम अपवादविहीन हैं
 - वह सच्चे अर्थों में विश्व भाषा बनने की पूर्ण अधिकारी है
 - हिन्दी लिखने के लिये प्रयुक्त देवनागरी लिपि अत्यन्त वैज्ञानिक है।
 - हिन्दी को संस्कृत शब्दसंपदा एवं नवीन शब्दरचनासामर्थ्य विरासत में मिली है। वह देशी भाषाओं एवं      अपनी बोलियों आदि से शब्द लेने में संकोच नहीं करती। अंग्रेजी के मूल शब्द लगभग १०,००० हैं, जबकि  
 हिन्दी के मूल शब्दों की संख्या ढाई लाख से भी अधिक है।
 - हिन्दी बोलने एवं समझने वाली जनता पचास करोड़ से भी अधिक है।
 - हिन्दी का साहित्य सभी दृष्टियों से समृद्ध है।
 - हिन्दी आम जनता से जुड़ी भाषा है तथा आम जनता हिन्दी से जुड़ी हुई है। हिन्दी कभी राजाश्रय की मुहताज नहीं रही।"

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

तकनीक का तड़का

दसवीं कक्षा में एक श्लोक पढ़ा था जिसमे यह समझाने का प्रयास किया गया था के मनुष्य को पहले निश्चित की तरफ देखना चाहिए, अनिश्चित तो अनिश्चित ही रहने वाला है:
     
     यो ध्रुवानि परितज्य अध्रुवानी निषेवते।
     ध्रुवानि तस्य नश्यन्ति, अध्रुवम नष्टमेव हि।।

आधुनिक जीवन और खास तौर से आज के तकनीक पर आधारित जीवन को अगर उपरोक्त श्लोक की तराजू पर तोला जाए तो एक बदलाव जो स्पष्ट दिखता है वो है निश्चितता और अनिश्चितता के बीच की धूमिल होती  दूरी। हर पखवाड़े बदल रही मोबाइल की दुनिया ने बदलाव की एक नयी परिभाषा गढ़ने का संकेत दिया है। बेहतर तकनीक का आना इसका सकारात्मक पहलू है वहीँ सहज ही दिग्भ्रमित हो जाना इसका नकारात्मक संकेत। भविष्य का आकलन तिमाहीयों में करके हम किस तरफ जा रहे हैं इसका जवाब अभी मिलना कठिन है लेकिन इस त्वरित बदलाव की दुनिया को इसके दुष्परिणामों से भी सतर्क रहना होगा।

आइये दर्शन दीर्घा से आगे बढे और देखें की मोबाइल ने कितनी नयी संभावनाओं को हवा दी है।लन्दन स्थित इनफोर्मा टेलिकॉम के हाल के सर्वेक्षण की अगर माने तो इसी साल के आखिर तक भारत में मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या १.१५ बिलियन से ऊपर हो जाएगी और इस तरह चीन को पटखनी देते हुए हम दुनिया के सबसे बड़े मोबाइल बाज़ार बन जायेंगे। अब भला इस बहती गंगा में कौन सी कंपनी अपना हाथ गीला करने से बाज आएगी? इसका सीधा असर यह हुआ है भारत आज मोबाइल बाजार का केंद्र बिंदु बना बैठा है।

मोबाइल तकनीक की संभावनाओं की अगर हम बात करें तो यह तय है की आने वाले महीनों में इस पर हमारी निर्भरता और बढ़ जायेगी। 4G तकनीक जो धीरे धीरे अपने पाँव पसारने वाला है के आगमन के पश्चात बड़ी डाटा का ट्रान्सफर त्वरित और आसान हो जाएगा जिसके फलस्वरूप सूचनाओं का आदान प्रदान भी अत्यंत तीव्र और प्रभावशाली हो जाएगा। आम ज़िन्दगी पर इसका बड़ा गहरा प्रभाव पड़ेगा, रिच मीडिया जैसा के तस्वीर, विडियो, बड़े ऑनलाइन फाइल्स इत्यादि को ट्रान्सफर करने के लिए एक्सटर्नल हार्डवेयर ढोने की बातें पुरानी पड़ जाएगी। एक और सुखद बात यह होगी के डाटा स्टोरेज की आज की पद्दति में भी आमूलचूल बदलाव आ जाएगा। मेघ संगणना (cloud computing) यह सम्भव कर देगा की आप हमेशा अपने डाटा अथवा सूचना से जुड़े रहेंगे और इससे जुड़ने का सबसे सरल माध्यम मोबाइल होगा। यह समझना भी अब मुश्किल नहीं है के दफ्तर के काम काज बड़े पैमाने पर और बड़ी सहजता के साथ मोबाइल की समुन्नत तकनीक के द्वारा सम्भव हो जाएगा।

हमें इस बात के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा की बड़ी सुविधाएं लेकर आती इन तकनीकों के साथ बड़ी समस्याएँ भी आएँगी। मसलन डाटा को सुनियोजित करना एक बड़ी कठिनाई होगी, डाटा की सुरक्षा, सूचनाओं के महाजाल में कौन सी सूचनाएं हमारे काम की हैं यह समझना आसान नहीं होगा। इसकी गंभीरता शायद अभी हमें पता नहीं चल पा रही लेकिन यकीन मानिए बड़ी डाटा (Big Data) जिसकी परिकल्पना लगभग एक दशक पहले की गयी थी इतनी बड़ी दुविधाओं का पिटारा खोलेगा के सबकुछ गड-मड हो जाएगा। बिग डाटा क्या है इसके विषय में हम अगले ब्लॉग में विस्तार से चर्चा करेंगे।

मोबाइल तकनीक जितनी तेजी से अपने रूप बदल रहा है इससे यह बात साफ़ हो जाती है  के इस सम्बन्ध में बहुत दूर की भविष्यवाणी सम्भव नहीं। लेकिन वर्तमान में हो रहे बदलाओं के आधार पर अगले कुछ तिमाहियों के सम्बन्ध में अटकलें जरूर लगाईं जा सकती है।

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

मेगापिक्सेल की माया

जबसे डिजिटल कैमरों का युग आया है मेगापिक्सेल्स को कैमरे की गुणवत्ता का आधार बना कर पेश किया जाता रहा है। एक 3 मेगापिक्सेल कैमरा 2 मेगापिक्सेल से ज्यादा अच्छा इत्यादि। अच्छा कैमरा होने का सीधा मतलब है ज्यादा मिगापिक्सेल होना। हम उपभोक्ताओं के मन में घर कर चुकी यह बात कैमरा निर्माताओं ने भुनाना शुरू किया और आज भी किसी दूसरी ज़रूरी बात पे ध्यान दिए बगैर हमें मेगापिक्सेल का अधिकतम होना ज्यादा भाता है। सन १९९९ के आस पास जब डिजिटल कैमरे सिर्फ १ या १.२  मेगापिक्सेल के होते थे तब एक मेगापिक्सेल का ऊपर नीचे हो जाना काफी मायने रखता था। लेकिन आज जब ५ मेगापिक्सेल या उससे ज्यादा के कैमरे आम हो गए हैं तब इस बात को समझना और आवश्यक हो गया के आखिर इसकी उपरी सीमा क्या है और कैमरा खरीदते वक़्त इस बात का कितना ख़याल रखा जाए?

चलिए थोडा छान-बीन करें पता लगाएं के आखिर ये मेगापिक्सेल की पहेली क्या है?

डिजिटल स्क्रीन असल में महीन चोकौर इकाइयों से बनी होती हैं और इसे ही हम पिक्सेल कहते हैं। यह  डिजिटल चित्र को मापने की इकाई है। पिक्सेल को दूसरे शब्दों में वर्गाकार कलर डॉट्स भी कह सकते हैं जो तस्वीर को रंगीन और प्रभावशाली बनाते है। लगभग एक मिलियन पिक्सेल्स जुड़कर एक मेगापिक्सेल का निर्माण करते है। जब डिजिटल कैमरे से तस्वीर खीची जाती है तो इमेज सेन्सर्स के द्वारा इसे आतंरिक या वाह्य स्टोरेज पे इकठ्ठा किया जाता है। उदाहरण के तौर पर एक ३ मेगापिक्सेल की तस्वीर में लगभग 2,048 x 1,536 पिक्सेल्स होंगे जो साधारण फोटोग्राफी के लिए एक बढ़िया तस्वीर है। जैसे-जैसे मेगापिक्सेल बढेगा वैसे वैसे उपरोक्त गुणात्मक संख्याओं में बढ़ोत्तरी होगी।
मेगापिक्सेल बढाने का मतलब है उनको स्टोर करने में स्टोरेज की जरूरतें भी बढेंगी। कहने का मतलब है जहाँ ४ मेगापिक्सेल के सौ तस्वीरें कैमरे के स्टोरेज में सेव कर पा रहे हैं वहीं ये लगभग आधी हो जायेंगी अगर कैमरा ८ मेगापिक्सेल या उससे ज्यादा का हुआ। अगर तस्वीरें वाकई बेहतर हैं तो बात समझ में आती है  लेकिन अगर आपको यह बताया जाये के मेगापिक्सेल का दुगना हो जाना और कम तस्वीर सेव  हो पाने से आपकी तस्वीरों की गुणवत्ता में कोई ज्यादा सुधार नहीं हुआ है - तब यह बात परेशान करती है। है न? असलीयत यही है, ज्यादा मेगापिक्सेल्स की जरूरत तब पड़ती है जब हम तस्वीरों को ज्यादा से ज्यादा बड़ा प्रिंट कराते हैं जैसा आप पोस्टर्स या बिल बोर्ड्स पर अक्सर देखते है. अगर आपने पोस्टकार्ड साइज़ या A 4 साइज़ या फिर उससे थोड़ी बड़ी भी फोटोग्राफ प्रिंट करनी है या उनको टीवी या कंप्यूटर पे देखना है तो 5 -8 मेगापिक्सेल की तस्वीरें एकदम उपयुक्त रहती हैं। इससे कुछ भी ज्यादा है तो यह सिर्फ एक सुकून देने वाला नंबर भर है जिसे सेल्समैन ने चतुराई से विज्ञापनों का सहारा लेकर आपको थमा दिया है।  इससे आम फोटोग्राफी में कोई फायदा होने से रहां।

कैमरा खरीदने से पहले आवश्यक यह है के आप पहले अपनी जरूरतों की जांच-परख कर लें और फिर ऑप्टिकल लेंस की क्षमता (यहाँ डिजिटल लेंस के चक्कर में न आयें), फोकल लेंग्थ, फ़्लैश टाइप, बैटरी और स्टोरेज क्षमता, इमेज मोड्स इत्यादि के बारे में पहले से जानकारी इकट्ठी कर लें। कैमरे को अपनी शर्तों पे खरीदें, विज्ञापनों के झांसे में न आयें।  

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

सैमसंग ग्रैंड

जिस तरह से देसी मोबाइल निर्माताओं ने बाज़ार पे अपनी पकड़ बनानी मजबूत की है अंतर्राष्टीय खिलाडियो की नींद उडी हुई है। उनके बने बनाए बाज़ार का बंटाधार हो रहा है और वो लाचार महसूस कर रहे है। आपाधापी का आलम यह है के चाहे HTC हो नोकिया, सैमसंग हो या LG सबके सब इसी जुगत में हैं के अब पार कैसे पाया जाये। जिन तकनीक और सुविधाओं का रोना रो कर उपभोक्ताओं की जेब कतरी जाती रही थी अब उन्हें वही सारी तकनीक औने पौने दामों पर भेंट की जा रही है। एप्पल जिसे अपने ब्रांड का गुमान था और ये भरोसा भी था के उनके उत्पाद किसी भी दाम पे बिक जाएंगी को बगलें झांकते देखा सुना जा सकता है। 

सैमसंग ने स्मार्ट फ़ोन बाजार में न सिर्फ एक बड़ा उलट फेर किया है बल्कि सबसे पहली अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों में शुमार हो गया है जिसने हर पॉकेट में समाने वाले स्मार्ट फ़ोन का निर्माण किया है। सैमसंग ने 2013 के आते आते यह प्लान कर लिया था के देसी स्मार्ट फ़ोन निर्माताओं को पटखनी देनी है क्युंकि इसके बगैर भारतीय बाज़ारों में उसकी ताजपोशी कठिन लगने लगी थी। इसी रणनीति को ध्यान में रखते हुए पिछले दिनों सैमसंग ने ग्रैंड को भारतीय बाज़ारों में उतारा है और माइक्रोमैक्स एवं कार्बोन सरीखी खिलाडियों के लिए अपना मोर्चा खोल दिया है। 

सैमसंग ने पूरे मीडिया जगत को सैमसंग ग्रैंड के विज्ञापनों से पाट रखा है। माइक्रोमैक्स ने जिस उत्साह के साथ अपने नए मॉडल माइक्रोमैक्स A116 HD को पिछले पखवाड़े लांच किया था उससे बड़े स्क्रीन वाले स्मार्ट फोंस के बाज़ार में प्रतिस्पर्धा और बढ़ने की उम्मीद थी लेकिन ऐसा हो नहीं पाया।  माइक्रोमैक्स A116 HD को फ़रवरी के पहले सप्ताह में ही बाजारों में होना चाहिए था लेकिन आज तक उसका कहीं अता पता नहीं। उडती खबर यह आ रही के वैलेंटाइन डे के दिन से यह मिलना शुरू हो जाएगा। लेकिन अबतक सैमसंग ने एक बड़ी सेंध लगा दी है और अपने विस्तृत पहुँच और उत्पाद की उपलब्धता ने माइक्रोमैक्स A116 HD से उपभोक्ताओं का ध्यान भटका दिया है। 

आइये सैमसंग ग्रैंड के बारे में जानें:

सैमसंग ग्रैंड एक 5 इंच 1.2 GHz ड्यूल कोर, ड्यूल सिम, HD रिकॉर्डिंग, मल्टी विंडो स्मार्ट फ़ोन है जो एंड्राइड के लेटेस्ट वर्शन जेली बीन (4.1.2) से चलायमान है। 8MP  का उन्नत रियर कैमरा (लेड फ़्लैश के साथ) और 2MP का फ्रंट कैमरा इसे एक लीक से हटकर फ़ोन बनाता है। इसकी बैटरी 2100mAH की है जो आपका साथ 1.5 दिनों तक बखूबी दे सकता है। 1GB RAM, 4GB इंटरनल मेमोरी जिसे  64GB तक बढाया जा सकता है। कुल मिलकर यह वाकई में एक ग्रैंड फ़ोन का स्पेसिफिकेशन लगता है। हाँ जैसा की कुछ भी दुनिया में परफेक्ट नहीं होता इसमें भी कुछ खामियां है जैसे इसका स्क्रीन सैमसंग गैलेक्सी सीरीज के तुलना योग्य नहीं है। स्क्रीन की गुणवत्ता का ध्यान यहाँ उतना नहीं रखा गया है जितना सैमसंग से हम उम्मीद करते हैं। दूसरा सैमसंग ने अपना प्रोसेसर नहीं लगाया है और किसी बेनाम कंपनी ब्रॉडकॉम का प्रोसेसर इस्तमाल हुआ है जिसको अभी परखा जाना बाकी है। 

सैमसंग ग्रैंड
कुल मिलाकर इसकी बुराइयाँ इतनी ज्यादा नहीं हैं के आप फ़ोन लेने से झिझकें। सैमसंग ग्रैंड एक बेहद आकर्षक स्मार्ट फ़ोन है और कहीं से यह रु 21,500 का नहीं लगता। सैमसंग की ब्रांड इमेज इसे एक विनर बनाती है।   

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

फेसबुक: लेजेंड के 9 साल

हम कभी-कभी खुद ही इतिहास बनता हुआ देखते हैं लेकिन उसकी अहमियत का एह्सास हमें तब होता है जब सचमुच वह इतिहास के पन्नों के हवाले हो जता है। अब इसका कारण कुछ भी हो सकता है एक तो ये के शायद भगवान् ने हमें ऐसा ही बनाया है या फिर हमारा आधुनिक व्यस्त जीवन जो हमें कुछ सोचने का वक़्त ही नहीं देता।

देखते ही देखते फेसबुक दुनिया का सबसे बड़ा सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट गत सोमवार 9 साल का हो गया। बॉलीवुड फिल्मों की तरह कॉलेज के रोमांस से शुरू ये सफ़र आज 100 करोड़ से ऊपर लोगों को एक ही बंधन में बांधे हुए है। विश्व इतिहास में यह अपने किस्म का पहला मामला है जहाँ इतने लोगों को इतनी जल्दी किसी एक प्लेटफार्म पे लाया गया, एक दूसरे से जोड़ा गया। 9 साल पहले यह कोरी कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं था। 



4 फ़रवरी 2004 का दिन इतिहास में इसलिए महत्वपूर्ण हो जाएगा क्योकि इसी दिन हार्वर्ड विश्वविद्यालय के दूसरे वर्ष के विद्यार्थी मार्क ज़ुकेर्बेर्ग ने फेसबुक वेबसाइट शुरू किया। वैसे इसका शुरूआती नाम thefacebook.com था जिसे बाद में बदलकर facebook.com कर दिया। सितम्बर 2006 में इस वेबसाइट का विस्तार प्रारंभ हुआ जहाँ  13 साल से अधिक के उम्र के लोग इससे जुड़ सकते थे।


फेसबुक लाइक जैसी सुविधाएँ 2009 में शुरू की गयीं। 2011 को टाइम लाइन लांच हुआ जिसे जनवरी 2012 तक सब एकाउंट्स के अनिवार्य बना दिया गया। 2012 में ही फेसबुक ने अपना आईपीओ भी लांच किया जिसका अधिकतम मार्किट कैपिटलाइजेशन 104 बिलियन डॉलर तक पंहुच गया था। हालाँकि इसके बाद इसका करेक्शन हुआ और शेयर की कीमतें कम हुई। अभी हाल में ही ग्राफ सर्च को भी शामिल कर दिया गया है। जिससे यूजर अपने मन और रूचि के हिसाब से चीजें सर्च कर सकता है। अब यह भी जाना  सकता है के उसको जानने वाले लोग क्या कर रहें हैं उनकी दिलचस्पी क्या है।

फेसबुक की पंहुच अब सिर्फ कंप्यूटर तक ही नहीं बल्कि इसकी उपस्थिति मोबाइल और टेबलेट्स पर भी अपरिहार्य हो गयी है। मोबाइल फ़ोन, जहाँ ऑपरेटिंग सिस्टम्स की विभिन्नता है वहां अपनी पहचान बनाए रखना फेसबुक के लिए आसान नहीं होगा।  आज की बदलती तकनीक के ज़माने में किसी के लिए भी बाज़ार में देर तक टिके रहने का आसान तरीका है उपभोक्ताओं की नब्ज़ पकडे रहना तथा  नए अन्वेषण करते रहना। सूचनाओं के इस  महासमर में नीरसता का कोई स्थान नहीं और यह किसी भी बड़े योद्धा को पतन का रास्ता दिखा सकती है।  

पिछले नौ सालों में फेसबुक बिलकुल बदल चुका है  और अन्वेषणों की भरमार ने ही इसका नयापन बरकरार रखा है, इसे लोगों से जोड़े रखा है। आशा है बढती प्रतियोगिता के दौर में फेसबुक खरा उतरेगा और कामयाबी की नयी उचाइयां छुएगा। मार्क को इस सफल यात्रा के लिए बधाई!

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2013

एंड्राइड के कुछ बेजोड़ टेबलेट्स

एंड्राइड एक लिनक्स बेस्ड ऑपरेटिंग सिस्टम (ओएस) है जिसे प्राथमिक रूप से टच स्क्रीन चलाने के लिए बनाया गया है। 2005 में जब गूगल ने एंड्राइड को खरीदा तभी से बाज़ार को अंदेशा था के स्मार्ट फ़ोन बाज़ार में एक बड़ा उलट फेर होने वाला है।  यह बात तब और साफ़ हो गयी जब पता चला के यह एक ओपन एंडेड ओएस है और एक मामूली अपाचे लाइसेंस जिसे गूगल ने रिलीज़ करना शुरू किया के जरिये कोई भी इसका न सिर्फ इस्तेमाल बल्कि अपने हिसाब से मॉडिफिकेशन और वितरण भी कर सकता है। इस तरह का खुलापन किसी बड़ी कंपनी ने पहले कभी नहीं दिखाया था। इसके चौंकाने वाले परिणाम सामने आये हैं और आज एंड्राइड दुनिया का सबसे लोकप्रिय स्मार्ट फ़ोन और टेबलेट ओएस है। 

इस बड़ी घटनाक्रम का सीधा असर उत्पाद के मूल्यों पर पड़ा और जब कोई तकनीक लोगों से जुडती है उनके जीवन पर अपना सार्थक असर डालती तो समझिये उसकी सफलता की दास्तान कही सुनी जाती है। पायरेसी जिससे दुनिया त्रस्त थी एंड्राइड के आड़े कभी नहीं आया। एक तरफ जहाँ विंडोज ओएस और i ओएस (एप्पल) अपनी क्लोज्ड एंडेड दुनिया में व्यस्त थे एंड्राइड ने पूरे बाज़ार को अपने गिरफ्त में ले लिया। अब अपनी पोजीशन पाने की उनकी आपा-धापी कहाँ तक रंग लाएगी यह वक़्त ही बतायगा।

चलिए इस जटिल स्पर्धा से निकलकर कुछ एंड्राइड टेबलेट्स के बारे में बात करें जिसने टेबलेट मार्किट को नयी दिशा दी:

1. Google Nexus 7 
गूगल नेक्सस 7 का इंतज़ार इसलिए भी था के इससे पहले के गूगल टेबलेट्स ज्यादा कामयाब नहीं हो पाए थे तब एंड्राइड ओएस का विकास अपने आरम्भिक चरणों में था। इस बह्तेरीन टेबलेट को बाज़ार में उतारकर गूगल ने कम कीमत वाले टेबलेट्स के बाज़ार में हलचल मचाने का भरसक प्रयास किया है। असुस जो कंप्यूटर तकनीक के निर्माण में दुनिया के अव्वल खिलाड़ियों में गिना जाता है , के साथ मिलकर गूगल ने अपनी सारी ताकत  गूगल नेक्सस 7 को एक प्रतिस्पर्धी संयंत्र बनने में मानो झोंक दिया है।
Google Nexus 7

तेग्रा 3 क्वैड कोर प्रोसेसर, 12 कोर GPU, 8GB और 16GB के स्टोरेज विकल्प, 7 इंच का सुपर स्मूथ स्क्रीन (1280X 800), जेली बीन का अपडेटेड वर्शन और इसकी कीमत जो  लगभग रु 16,000 से शुरू हो जाती इसे एक अलग ही स्थान देती है।

इसकी खामियों की अगर बात करें तो पहला ये है के इसकी स्टोरेज क्षमता बिलकुल फिक्स्ड है  8GB या 16GB जो काफी कम है। इसके प्लेन वर्शन में आप सिर्फ और सिर्फ wi fi से ही इन्टरनेट से जुड़ सकते। सिम की सुविधा नहीं है। लेकिन इनको अगर हम दरकिनार करें और इसकी प्रतिक्रिया देखें तो दुनियाभर के बाजारों में यह वाकई एक विनर है। 

2. Amazon Kindle Fire HD
क्वैड कोर प्रोसेसर का होना टॉप लिस्ट में शामिल होने के लिए अब जरूरी जैसा हो गया है। यह टेबलेट उस ग्रुप का एक प्रतिष्टित प्रतियोगी है जिसने गूगल नेक्सस के आने तक दुनिया भर में धूम मचा रखा था यह एक ड्यूल कोर प्रोसेसर है। Amazon Kindle Fire HD  जैसा के नाम से ही स्पष्ट है एक हाई डेफिनिशन 7 इंच स्क्रीन (1280x800) वाला टेबलेट है जिससे आप क्रिस्टल क्लियर होने की पूरी उम्मीद कर सकते हैं। स्क्रीन कई मामलों में Google Nexus 7  से बेहतर है।


Amazon Kindle Fire HD

Amazon Kindle Fire HD भी 8GB और 16GB के स्टोरेज के विकल्पों में उपलब्ध है। इसका एंड्राइड ICS इसे थोडा बैकवर्ड बनाता है लेकिन  इसका पता लगाना आम उपभोक्ता के लिए आसान नहीं है। इस टेबलेट का टारगेट मार्किट भी अलग है यह ऐसे लोगों के लिए एक बेहतरीन विकल्प है जो ऑनलाइन पढाई करते हैं क्यूंकि रीडिंग एक्सपीरियंस बिलकुल अद्वितीय है। भारत में इसकी कीमतें रु 15,000/- से शुरू होती है। 


3. Samsung Galaxy Note 800
यह  एक अलग श्रेणी का टेबलेट है जो कई मामलों में उपरोक्त टेबलेट्स से अलग है। मसलन यह प्राथमिक रूप से i -pad 4 3G को टक्कर देने के लिए बनाया गया है अतः इसका स्क्रीन साइज़ भी 10.1 इंच (1280x800) स्क्रीन है जिसकी गुणवत्ता टॉप क्लास है। इसकी कीमत रु 35000 के आस पास है। एक और चीज़ जी इसे अलग बनाती है वह है इसका S-पेन जो बरबस ही आपको पुराने स्मार्ट फ़ोन के स्टाइलस की याद दिलाएगा। हालाँकि यह काफी उपयोगी है और स्टाइलस से कई पीढ़ी आगे की विषय वस्तु है। 

Samsung Galaxy Note 800
Samsung Galaxy Note 800 तीन स्टोरेज विकल्पों में उपलब्ध है  जो इस प्रकार है16/32/64GB. लेकिन यह आपको स्टोरेज वृद्धि की सुविधा देता है। 1.4 GH का क्वैड कोर प्रोसेसर, 2GB का RAM, एंड्राइड ICS, दैत्याकार क्षमता वाला7000 mAH का बैटरी। इस टेबलेट को iPad (third gen Wi-Fi+4G) को टक्कर देने के लिए बनाया गया और यह कोई बचकानी बात नहीं है। सैमसंग ने एक बेहतरीन टेबलेट बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा है। 


4. Acer Iconia B1
16 जनवरी 2013 को एसर ने अपना यह मॉडल भारतीय बाजारों में पेश किया है जिसको हाथों हाथ लिया जा रहा है। चाहे आप इसके स्क्रीन की बात करें या इसकी कार्यकुशलता की यह एक बड़ा उलट फेर करने में सक्षम है। जिस प्राइस रेंज की बात हम यहाँ कर रहे हैं उसमे ऐसे उत्पाद के आगमन से प्रतिस्पर्धा और गरमाएगी इसमें कोई शक नहीं।

Acer Iconia B1  7 इंच का टेबलेट है जिसका 1024x600p का स्क्रीन इसे दस हज़ार से कम दामों में उपलब्ध टेबलेट्स का सबसे बढ़िया स्क्रीन है। बात यही ख़तम नहीं होती यह एक एंड्राइड जेली बीन टेबलेट है जो इस प्राइस रेंज में सबसे पहले टेबलेट्स में से एक है। 8GB की इंटरनल मेमोरी जो 32GB तक एक्सपेंडेबल है एक स्टैण्डर्ड फीचर है। 1.2GH  का ड्यूल कोर प्रोसेसर इसे एक फ़ास्ट टेबलेट बनाता है। Wi-Fi, ब्लूटूथ 4.0 इत्यादि इसके अन्य स्टैण्डर्ड फीचर हैं।
Acer Iconia B1 
इसकी डाउनसाइड की बात करें तो इसकी 2,710mAh की बैटरी और 512 MB का RAM से मन थोडा छोटा हो जाता है। लेकिन इस प्राइस रेंज के सबसे समुन्नत टेबलेट्स में यह बेशक शुमार है। इसकी कीमत रु 7,999 रखी गयी है।