गुरुवार, 16 मई 2013

इ-कॉमर्स का क्रेज

इ-कॉमर्स का क्रेज भारत में बढ़ता ही जा रहा है। पिछले सात सालों से भारत में लगातार लगभग 34 फ़ीसदी की दर से बढ़ता इ-कॉमर्स बाज़ार अब परिचय का मोहताज़ नहीं रहा। नामी गिरामी सर्वेक्षण संस्था फोर्रेस्टर की अगर माने तो भारत में इ-कॉमर्स के बढ़ने की प्रचूर संभावनाए हैं और 2013 से 2016 के बीच इसके विकास की दर 57 प्रतिशत रहेगी जिसपर दुनिया भर की नागाहें रहेंगी। यह एक बड़े उलटफेर का संकेत है।

भारत पारंपरिक रूप से छोटे दुकानों का देश रहा है जहाँ नुक्कड़ के मोदीखाने से घर गृहस्थी का सारा सामान नगद हो या उधार खरीद लेना यहाँ के लोगों को रास आता रहा है। और यह आज भी बदस्तूर जारी है। मुंबई जैसे बड़े नगरों की बात करें तो वहां भी नुक्कड़ के लाला जी की इतनी पूछ है के पिछले कुछ दिनों से LBT (लोकल बॉडी टैक्स) को मुद्दा बनाकर इन्होने सारे शहर की नाक में दम कर रखा है। छुट्टे पैसे लेकर कुछ लाने निकलिए तो पता चलता है दुकाने तो बंद है। अब एक टूथपेस्ट का पैकेट खरीदने के लिए माल्स का चक्कर लगाना मुझे तो रास नहीं आता और अगर छुट्टियाँ हों तो मॉल जाना तीरथ करने जैसा लगता है। वही कतारें, वही भीड़-भाड़, वही आपा-धापी! कहने का मतलब है हम दो राहे पर खड़े हैं जहाँ एक तरफ लाला जी की मुस्कराहट, उनकी बातें, उनका सुबह-सुबह दुकान का खोलना, उधारी, कम तोलना, गुणवत्ता का पैमाना न होना, टैक्स से दूर रहना  इत्यादि बाते है तो दूसरी तरफ मॉल कल्चर जहाँ सबकुछ चम् चमा चम्, गुणवत्ता का भरोसा, होम डिलीवरी,  टैक्स की जिम्मेदारी, ऑफर्स, प्लास्टिक (कार्ड) पेमेंट, प्लास्टिक के बने लोग, सुबह खुलने की सुविधा नदारद इत्यादि इत्यादि हैं।

इ-कॉमर्स इसके आगे की कहानी है जहाँ मोटे तोर पर आप मशीन से खरीदारी करते हो और मशीन से प्राप्त हो सकने वाली सारी सुविधाएं आपको सहज मिल जाती हैं। इ-कॉमर्स की अपार संभावनाओं के बावजूद वास्तविकता यह है की इसका अपेक्षित विकास नहीं हो पा रहा। पिछले छः महीनों में काफी नए इ-कॉमर्स वेबसाइटस आये हैं लेकिन यकीन मानिए इनके बंद हो जाने की रफ़्तार भी त्वरित है। इ-कॉमर्स व्यावसाय के सामने आज कई सारी बाधाएं हैं मसलन भरोसेमंद इन्टरनेट स्पीड की कमी, कार्ड पेमेंट सब नहीं कर सकते, कार्ड पेमेंट करने से डर, डिस्ट्रीब्यूशन के लिए पर्याप्त साधनों का अभाव इत्यादि। ये सारे कारण सही हैं। लेकिन एक और बात जिसपर शायद गंभीरता से विचार नहीं किया गया है वह यह है की अगर हम इन्टरनेट के विकास के पैटर्न को समझें तो हम इस समस्या की थोड़ी विस्तृत जानकारी मिल पाती है और इससे निदान का रास्ता भी आसान हो सकता है


हम शायद यह मान बैठे हैं इन्टरनेट के आगमन की तुरंत बाद ही इ-कॉमर्स परवान चढ़ना शुरू हो जाएगा तो माफ़ कीजिये, यह ग़लत होगा। क्रमगत विकास ही स्वाभाविक विकास है। जल्दीबाजी में घोड़े के आगे गाडी बांध देने से किसी का भला नहीं होगा। मोबाइल, जिसकी विकास यात्रा से हम सब परिचित हैं कैसे शुरू हुआ, मोटोरोला का वो काला  मोबाइल फ़ोन आपको याद होगा जिसका हाथ में होना ही आपको भीड़ से अलग रखने के लिए काफी था। इनकमिंग कॉल्स के भी 16 रु प्रति मिनट लगते थे। इसके बाद एस एम् एस लोकप्रिय हुआ, तब म्यूजिक, कैमरा, गेम्स और अब जाकर इन्टरनेट आया है। ठीक उसी तरह,  इन्टरनेट के आगमन के बाद आमतौर पर लोग पहले ईमेल का इस्तेमाल सीखते हैं तब सर्च इंजन को चलाना तब सोशल मीडिया, गेम्स और तब कहीं ऑनलाइन लेन-देन के लिए उनके मन में भरोसा जागता है। सभी इन्टरनेट यूजर को उपभोक्ता मानकर बनायी गयी रणनीतियां वैसे ही सफल नहीं होंगी जैसे मोटोरोला के उस पहले फ़ोन के लिए इन्टरनेट के आकर्षक प्लान्स घोषित करना जब लोगों ने SMS भेजना ही शुरू किया था।

दूसरी बात यह की इ-कॉमर्स एक उत्तराधुनिक व्यवसाय है जो आज के नये आयामों, नए परिवेश और नयी परिस्थियों का प्रतिनिधित्व करता हैं। हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने पहला एम बी ए प्रोग्राम 1908 में शुरू किया था और यह उस समय की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर की गयी एक अच्छी पहल थी। बड़े उद्योगों का बोलबाला हुआ करता था जिनकी जरूरतों के हिसाब से पाठ्यक्रमों का निर्माण किया जाता था। विडंबना यह है के कमोबेस वही पाठ्यक्रम आज भी  एम बी ए में पढाया जाता है जहाँ कंप्लायंस, क्वालिटी, ऑपरेशंस, मार्केटिंग, एच आर इत्यादि कुछ आधारभूत विषय हैं किसी व्यावसाय को समझने हेतु।

 इ-कॉमर्स का कांसेप्ट एक स्टार्ट अप कांसेप्ट   है जिसको चलने चलाने का कोई तय पैमाना नहीं होता, समय के साथ-साथ व्यवसाय सीखा जाता है और इसका विस्तार किया जाता है। चूक तब हो जाती है जब यह मान बैठते हैं की स्टार्ट अप व्यावसाय बड़े उद्योगों का ही छोटा स्वरुप है। अब फ्लिप्कार्ट को रिलायंस रिफाइनरी का छोटा रूप कैसे माना जा सकता है। उदहारण के लिए  रिलायंस रिफाइनरी जहाँ सबकुछ तय होगा जहाँ प्रोडक्शन के बाद क्वालिटी आएगा और उसके बाद सप्लाई और इस सिलसिले के अगले कुछ सालों का प्लान भी तैयार रहेगा। स्टार्ट अप में आप कैसे प्रोडक्शन शुरू करेंगे जब आपको पता ही नहीं है के उपभोक्ता कौन है? कोई बिज़नस मॉडल तैयार नहीं है। स्टार्ट अप की लड़ाई आर या पार की होती है जिसमे या तो आप पूरे जीत जाते हो या पूरी हार हो जाती है। यहाँ बिज़नस डेवलपमेंट से ज्यादा कस्टमर डेवलपमेंट पर ध्यान देना होगा तब बात बनेगी।

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