शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

कहानी कैमरे की


कैमरे हमेशा से एक ऐसी प्रभावशाली मशीन रही है जिसने जीवन-नदी से यादगार पलों की बूँदों को सहेजकर रखने में हमें सक्षम बनाया है. इस अद्भुत तकनीक की कहानी भी बड़ी अद्भुत एवं पुरातन है. ईसा पूर्व ५ वीं शताब्दी में चीन के दर्शन शास्त्री मो ज़ी को बड़ी हैरानी हुई जब उन्होंने यह समझा की एक पिन जितनी छेद से अगर प्रकाश को गुजारा जाय और दूसरी तरफ एक श्याम पटल हो तो एक उलटी ही सही, तस्वीर आंकी जा सकती है. वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस तरह की नयी सोच और नयी तकनीक को अमली जामा पहनांने की ठान ली. मो ज़ी ने बड़ी मशक्कत के बाद एक ऐसी चीज़ बनायी जिसने कमेरे की तकनीक की पृष्टभूमि रखी- इसे आज भी कैमरा ओब्स्क्युरा के नाम से जाना जाता है. अरस्तु और बाद के विद्वानों ने भी अपने लेखों में इस तकनीक की पुष्टि की है.



रोचक बात यह है की काफी लम्बे समय तक इस पर शोध हुए लेकिन कोई सक्षम छायाचित्र नहीं लिया जा सका जिसे सहेजा जा सके. कई सदियों बाद सन् १८२६ में चार्ल्स और विन्सेंट शेवलिएर ने पहली बार पेरिस में एक परमानेंट छायाचित्र खींचा जिसे बनाने में उन्हें तकरीबन ८ घंटों की मशक्कत लगी. जी हाँ! १८३९ में पहली बार फ़्रांसिसी कला प्रेमी अल्फोंे गिरॉक्स ने कैमरे का औद्योगिक उत्पादन शुरू किया और यहीं से आधुनिक कैमरों की कहानी शुरू होती है. आधुनिक कैमरे से यहाँ तात्पर्य फोटोग्राफिक फिल्म वाले कैमरों से है जिन्होंने छायांकन (फोटोग्राफी) को वास्तव में लोकप्रिय बनाया. इसका श्रेय जॉर्ज ईस्टमैन को जाता है जिन्होंने सन् १८८५ में कागज़ के फिल्मों की शुरुआत करी और फिर १८८९ आते आते सिलोलाइड का इस्तेमाल फ़िल्में बनाने के लिए करने लगे. और हाँ ! इन्होने अपने कैमरे का नाम 'कोडैक' (Kodak) रखा जिसने दसकों तक फोटोग्राफी की दुनिया पर एकछत्र राज किया।


पहला कोडेक कैमरा 
कोडैक के ही एक इंजीनियर स्टीवन सेसन ने १९७५ में इमेजेज को स्टोर करने की पद्धति का आविष्कार किया और इस तरह इमेजेज को सहेजने, उन्हें वीडियो कैसेट की सहायता से टेलीविज़न स्क्रीन पर देख पाना सम्भव हुआ. और इस तरह एनालॉग कैमरे लम्बे समय तक लोकप्रियता के नए कीर्तिमान स्थापित करते रहे.

डिजिटल कैमरों की शुरुआत सन् २००० से होती है जब पॉइंट एंड शूट कैमरों ने फोटोग्राफी को अत्यन्त सहज बना दिया। इमेजेज का रूपांतरण एवं एडिटिंग आसान हो गया और इसी के साथ कैमरे की कहानी में एक सुखद नया अध्याय जुड़ा। डिजिटल कमरों के पॉकेट फ्रेंडली (कीमत और आकर दोनों) होना इसकी सबसे बड़ी खूबी थी और इसी सहजता ने पॉइंट एंड शूट कैमेरों को २०१० तक अत्यन्त लोकप्रय बनाए रखा. अब आप तस्वीरों को फ़्लैश ड्राइव पर सेव कर कंप्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल अथवा टीवी पर आसानी से देख सकते थे.
शुरुआती डिजिटल कैमरा 
मुझे कैमरों का चस्का तो बहुत था और पापा से जोर ज़बरदस्ती करके एक एनालॉग कैमरा खरीद भी लिया जिसकी सबसे बड़ी खूबी थी उसका छोटा स्क्रीन जिसमे फिल्म की इमेज संख्या दिखती थी. दो सालों बाद जब अपने पैरों पर खड़ा हुआ तब एक दोस्त जो किसी काम से अमेरिका गया था उससे एक निकॉन का बेहद पॉकेट फ्रेंडली कैमरा मंगाया। दस हज़ार की कीमत जो मैंने कई किश्तों में चुकाई वह भी कम लग रही थी. उत्सुकता थी के थमने का नाम नहीं लेती थी. महज ४ मेगापिक्सेल कैमरे जिसने कम रौशनी में कभी भी अच्छी तस्वीर नहीं ली उसपे मेरा पूरा परिवार फ़िदा था. सबसे सुखद यह बात थी की सभी तस्वीरों को तुरंत ही देखा जा सकता था और प्रिंट करवाने, पैसे खर्च करके इंतज़ार करने की जरूरत नहीं रह गयी थी. डिजिटल कैमरे ने हमें पहली बार फोटोग्राफी में आत्मनिर्भर बनाया।

समय का पहिया फिर घुमा और अब हुआ यूँ है के मैंने अपने डिजिटल कैमरे का इस्तेमाल बरसों पहले छोड़ दिया है. स्मार्ट फ़ोन से ही काम चल जाता है कौन भला कैमरे की जहमत उठाये। २०१० दस के बाद डिजिटल कैमरों का सबसे बड़ा शत्रु बना स्मार्ट फ़ोन जिसने तस्वीरें खींचना ही आसान नहीं बनाया बल्कि उन्हें शेयर करना भी सहज कर दिया। यह युग कनेक्टेड कैमरे का था जहां सिर्फ छोटा और सस्ता होना काफी नहीं था, डिजिटल कैमरे इस नयी डिमांड को आत्मसात करने में पिछड़ गए. हुआ यह है की डिजिटल पॉइंट एंड शूट कैमरे अब इतिहास का हिस्सा बनने की कगार पर हैं.

स्मार्ट फ़ोन्स ने हमारे तस्वीरें लेने के उद्देश्य को ही पुनर परिभाषित किया है- यह महज एक तस्वीरें खींचने की मशीन न होकर नेटवर्क्ड डिवाइस बन गयी है. आज चाहे निकोन हो, कैनन हो, सोनी हो या सैमसंग सभी नामचीन कैमरा उत्पादक ऐसे कैमरों को बनाने की होड़ में जुटा है जो कैमरा होने के अलावा एक कनेक्टेड डिवाइस भी बन सके. वाई फाई हो यह ब्लूटूथ सब इसके अंग बनते जा रहें हैं.

देखना यह है की स्मार्ट फोन्स की सम्मुन्नत तकनीक, सहजता से कनेक्ट होने की सुविधा, कम दाम और इजी इस्तेमाल जैसी लोकप्रिय तकनीक को नए जमाने के कैमरे जिन्हे DSLR भी कहते हैं - कहाँ तक झेल पाते हैं. कहीं इन नामचीन कंपनियों का हश्र कोडक वाला न हो जाये। वही कोडक जिसने कैमरे को घर घर तक पहुँचाया, जिसके पास २००० से भी ज़्यादा फोटोग्राफी के पेटेंट थे, वे भी नयी तकनीक का बखूबी आकलन नहीं कर पाये और अंततोगतवा दिवालिया हो गये.

इतिहास का हिस्सा कौन कब बन जाए इस बदलते तकनीक और समय के दौर में, कहना मुश्किल है.

Image Courtesy: Google Images

शुक्रवार, 29 मई 2015

टीवी खरीदने से पहले क्या जानें





अभी चार महीने पहले तक हमारे पास २१ इंचेस का रंगीन पारम्परिक बक्से वाला टीवी ही था. टीवी तकनीक की दुनिया आगे बढ़ती जा रही थी और हम कहीं न कहीं असुरक्षित महसूस कर रहे थे. घर के लोग भी किसी के यहाँ जाते तो एलसीडी की कहानियां लेकर लौटते। मुझे लगा था की पिछले ८ सालों से साथ निभा रहा टीवी अभी कुछ और साल हमारे खर्चे को काम रख पायेगा लेकिन विज्ञापनों ने ऐसा होने न दिया. एलसीडी, प्लाज्मा, लेड और न जाने क्या क्या ने उत्सुकता बनाये रखी और अच्छी टीवी खरीदने का मेरा रिसर्च प्रारम्भ हुआ.


एक बात जो मैं आपको तुरंत कह सकता हूँ वो है: विज्ञापन सिर्फ वही बताएँगे जो उन्हें बताना है, आपको क्या चाहिए ये आपको पता करना पड़ेगा। अतः थोड़ा धीरज रखें, खोजबीन करें, गूगल की शरण में जाएँ। किसी दोस्त से बात करें जिसे इस बात की जानकारी हो या जो इस क्षेत्र में कार्यरत हो. थोड़ा सा प्रयास आपके निर्णय को और बेहतर कर सकता है. चलिए आपकी राह मैं थोड़ी सरल कर देता हूँ.

लगभग चार महीनों के सतत विश्लेषण के बाद मैंने पाया की अगर हम सिर्फ तीन बातों का ख्याल रखें टीवी खरीदारी को बेहतर बनाया जा सकता है:

विज्ञापनों में प्रकाशित आंकड़े और फैंसी शब्दावली का टीवी के पिक्चर क्वालिटी से सम्बन्ध नहीं होता: टीवी के सम्बन्ध में छपे आंकड़े आपको आकर्षित एवं भ्रमित करने के लिए ज़्यादा होती है इनसे आपका कोई हित नहीं सधता। मसलन रिफ्रेश रेट (120Hz, 240Hz, 600Hz इत्यादि ) से आपको कोई फायदा या नुकसान नहीं होता। 60Hz से अधिक कुछ भी अच्छा है. कंट्रास्ट रेश्यो का ज़िक्र है भी तो आम उपभोक्ता का इससे कोई सरोकार नहीं। अगर सेल्समैन आपको कुछ अत्यंत भयंकर शब्द जैसे : "ट्रू मोशन ", "क्लियर मोशन रेट", "मोशन फ्लो रेट ", "एस पी एस " के बारे में बता रहा है तो समझिए उसे अपना माल बेचने की जल्दी है. यह सभी जाली टर्म हैं और इनका कोई फायदा आपको कभी नहीं मिलेगा। व्यू एंगल की बात सेल्समैन जरूर करेगा। आपको बताया जायेगा के १७८ डिग्री सबसे समुन्नत टीवी का व्यू एंगल होता है. cnet.com सरीखे दुनिया के नामी तकनीकी समीक्षक वेबसाइट बताते हैं की यह एक फ़र्ज़ी आकंड़ा है. एक और बात लेड टीवी आपको सबसे अच्छा पिक्चर क्वालिटी देगा यह भी झूठ है. जी हाँ! मेरी सलाह यह होगी के आप खुद दो से ज़्यादा ब्रांड्स के टीवी को देखें और इत्मेनान से जांच परख कर अपने प्राथमिकताओं के आधार पर अपना टीवी खरीदें। 

बड़ा टीवी वाकई बेहतर होता है: यह बहुत कुछ आपके लिविंग रूम, जहां आप टीवी रखने वाले हैं उसके आकार पर भी निर्भर करता है. एक बात याद रखें ३२ इंचेस से कम कुछ भी ना लें. महत्वपूर्ण बात यह की आपका टीवी अगर ५० इंच का है तो सबसे अच्छी पिक्चर क्वालिटी आपको ६ से ८ फ़ीट की दूरी के बीच मिलेगी। इस दूरी पे आपको HD का पूरा आनंद मिलेगा, अगर आपको इससे कम दूरी से देखना है तो ४० या उससे भी काम ३२ इंच का टीवी लें. सेल्स मैन चाहे कुछ भी बखान करे स्मार्ट और 3D टीवी से दूर रहें। इसका आपको कभी फायदा नहीं मिल पायेगा। आप चाहें तो उनसे पूछें जिन्होंने 3D टीवी खरीदा हुआ है. एक बात और, सिर्फ दो हज़ार बाद में खर्च करके आप किसी भी अच्छे टीवी को स्मार्ट बना सकते हैं. यह सुनिश्चित करें के टीवी फुल HD है HD रेडी नहीं। HD रेडी एक भुलावा है और इस पुराने तकनीक को सस्ते में आपको चिपकाने का पूरा प्रयास होगा। आपका टीवी फुल LED होना चाहिए सिर्फ एलसीडी नहीं और उसमे १०८० पीक्सेल्स होंने चाहिए न की ७२० पीक्सेल्स। HDMI केबल के लिए कितने सॉकेट हैं, USB के लिए कितनी जगह है. स्पीकर कितना आरएमएस (RMS) साउंड प्रोडूस करेगा यह भी पूछें। याद रखें स्पीकर की क्वालिटी PMPO से मापना उतना ही भ्रामक है जितना कैमरे की गुणवत्ता मेगापिक्सेल से मापना।  एक  २० आरएमएस से ज़्यादा कुछ भी अच्छा है. वैसे भी चाहे आप जितनी मर्ज़ी महँगी टीवी ले लें उसकी साउंड क्वालिटी से आप कभी संतुष्ट नहीं होंगे। ऐसा सभी टीवी निर्माता जान बूझ कर करते हैं ताकि आप उनके स्पीकर सिस्टम्स खरीद सकें। 

अल्ट्रा डेफिनिशन (4k टीवी ) ही टीवी का भविष्य है लेकिन अभी नहीं: अल्ट्रा डेफिनिशन (4k टीवी ) से अभी दूरी बना कर रखा जा सकता है, क्यूंकि इसका कंटेंट अभी भी पूरी तरह उपलब्ध नहीं है. आपको जिस वीडियो की पिक्चर क्वालिटी सेल्समेन दिखा रहा है बस उसे ही आपको देखना पड़ेगा। अभी न फ़िल्में, न सीरियल और न खेल कुछ भी पूरी तरह 4K की गुणवत्ता से शूट नहीं होता। और यह सिर्फ भारत की नहीं पूरी दुनिया की कहानी है. दूसरी अहम बात की अल्ट्रा डेफिनिशन (4k टीवी ) बनाने का खर्च बहुत ही काम होता है लेकिन नयी तकनीक का जामा पहनाकर इसकी कीमतें बढ़ा कर रखीं गयीं हैं. जल्दी ही सारे टीवी अल्ट्रा डेफिनिशन (4k टीवी ) होने वालें हैं और इनकी कीमतें मुँह के बल गिरने वालीं हैं. इस तकनीक को अभी लेने का कोई मतलब नहीं है. और HD तकनीक जो अभी लोकप्रिय है अभी कुछ सालों तक कहीं नहीं जाने वाला।

रविवार, 15 जून 2014

लैंडलाइन फोन्स : सब दिन होत न एक समान

ट्रेन में सफर के दौरान जो सबसे अनोखी चीज़ खिड़की से बाहर दिखती थी वह होते थे टेलीफोन के खम्भे और उनके लहरों की तरह बहते नीचे-ऊंचे तार. पंछियों ने अब  शायद नए ठिकाने ढूंढ लिए हैं लेकिन एक ज़माने में उनकी शामें उन्ही टेलीफोन के तारों पर गुजारते देखा है मैंने। टेलीफोन के खम्भे का दरवाजे पर लग जाना मामूली बात नहीं थी तब। तीन महीने की सरकारी महकमे में धक्का मुक्की के बाद सरकारी कृपा बरसने का नाम था लैंडलाइन फ़ोन. समय की  बेवफाई  कहें या भाग का लेख लेकिन लैंडलाइन के घटते महत्व ने उन सरकारी बाबुओं और तकनीक विशेषज्ञों को भी हासिये पर लाकर खड़ा कर दिया है. मुई मोबाइल क्या न कराये?



हमारे घर कभी टेलीफोन नहीं आया क्यूंकि पापा को ये तकनीकी पेशोपेश चोंचले लगते थे और चिट्ठियों और कागज़ के पन्नों में उन्हें ज़्यादा आत्मीयता महसूस होती थी. हमने एक बार मोबाइल ही लिया और लगभग एक दसक से उसी को यूज़ करते आ रहे हैं लैंडलाइन की कभी जरूरत पेश ही नहीं आई. बहुत सारे लोगों की शायद यही कहानी है. 

शुरू में यह लगा था की कॉल रेट्स और बैटरी की निर्भरता शायद मोबाइल फ़ोन का हाल पेजर जैसा कर देंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कॉल दरों में बेतहासा कमी आई, मोबाइल फ़ोन सस्ते  हुऐ और सबसे बड़ी बात इसने बहुआयामी संभावनाओं का पिटारा खोल दिया।

विल डाल्टेन ने २०१२ में प्रकाशित अपने लेख में कहा था के अगले पांच साल के अंदर लैंडलाइन फ़ोन्स विलुप्त हो जाएंगे। मुझे लगता है दुनिया उसी ओर अग्रसर है. मोबाइल फ़ोन्स की आसान उपलब्धता ने मानो यकायक ही लैंडलाइन के जमे जमाये खेल को बिगाड़ कर रख दिया है. घर के कोने से आती ट्रिंग ट्रिंग की शानदार आवाज़, चोंगे को शान से थाम कर दूरियां मिटाने वाली इस तकनीक से न सिर्फ शहरी बल्कि ग्रामीण उपभोक्ताओं का मोह भांग हो रहा है.


अब दो तरह के लोग ही लैंडलाइन फ़ोन रख रहे हैं पहले जिनका नंबर बहुत पुराना है और इसके मोह से वे उबर नहीं पा रहे या फिर उनके कारोबार का काम इसके बिना नहीं चल सकता। जिस तरह तमाम नए ऑफिसेस डेस्कटॉप से दरकिनार हो रहे है वह समय दूर नहीं जब लैंडलाइन, कारोबार से भी विलुप्त हो जायेंगे। इतिहास में इस नए पन्ने का जुड़ना लगभग तय है.

आप क्या कहते हैं ?

रविवार, 18 मई 2014

बैटरी का भविष्य

तकनीक हमारी ज़िन्दगी का इस कदर हिस्सा बनते जा रहे हैं की पूछिए मत. आँखे खुली नहीं के मोबाइल आँखे दिखाना शुरू कर देता है और फिर रात ढलने तक करते रहिये इसकी खातिरदारी। कभी इसे पूरी सिग्नल नहीं मिल रहां होता  तो कभी यह बैटरी कम चार्ज होने का रोना रो रहा होता है.जब स्मार्ट फ़ोन खरीदने गया था तब मन में हो रहा था के पूरा लोडेड मोबाइल लेंगे जिसमे सब लेटेस्ट तकनीक ठूस ठूस कर भरे होंगे। किया भी यही. और फिर होता यह है के हम तमाम वह उपाय करते है जिससे बैटरी बची रहे, मोबाइल चलता रहे. मुझे लगता है यह मुश्किल आज सभी मोबाइल खरीदने और उपयोग करने वालों की है. आप क्या  कहते हैं. . .? 

स्मार्ट फ़ोन की तकनीक में बेतहाशा विकास हुआ है लेकिन बैटरी पर उतना काम नहीं हुआ. आज भी एक स्मार्ट फ़ोन दो दिन बिना चार्ज किये काम करता रहे यह मुश्किल है. बैटरी को और समुन्नत बनाया जा सके इसपर अनुसंधान होना भी बड़ा महत्वपूर्ण होता जा रहा है. 
via : wirelessduniya.com
अधिकांश चलत डिवाइस में आज लिथियम आयन बैटरी का उपयोग होता है चाहे वह स्मार्ट फ़ोन हों, टैबलेट हों या फिर डिजिटल कैमरा। इस बैटरी की तकनीक ने ही हमें भारी भरकम निकेल बेस्ड बैटरी से निजात दिलाई है. आज ५ बिलियन से भी ज़्यादा लिथियम आयन बैटरीज हर साल दुनिया भर में बिक रहे हैं. सवाल यह है की हमारी जरूरते बढ़ती जा रही है. प्रतिव्यक्ति तकनीक का उपयोग बढ़ता ही जा रहा है. बैटरी बेस्ड वाहनों का विकास होना है जिन्हे कम से कम ५०० वाट-ऑवर प्रति किलोग्राम की ऊर्जा चाहिए होगी  और आज की लिथिअम आयन बैटरी १५० वाट-ऑवर प्रति किलोग्राम की ऊर्जा ही दे पा रहे हैं. 

जहाँ तक  लिथियम आयन बैटरी के भविष्य का प्रश्न है, लोग इसपर लगे हैं कंपनियां इसपर बहुत सारा पैसा खर्च कर रहीं हैं. ऐसी बैटरीज जल्दी ही आ जाएंगी जो ज्वलनशील नहीं होंगी।  बैटरीज अधिक शक्तिशाली होंगी और बहुत छोटी हो जाएंगी, अनाज के दानों के बराबर। हो सकता है मैग्नीशियम आयन बैटरीज आज के 
लिथियम आयन बैटरीज की जगह ले ले. क्युंकि मैग्नीशियम आसानी से पाया जाने वाला एक सस्ता संसाधन है और यह ज़्यादा ऊर्जा संचयित कर सकता है. हालांकि इसपर अभी बहुत काम होना बाकी है. 

एक बात तो तय है की बैटरी पर हमारी निर्भरता एक लम्बे अर्से तक बनी रहने वाली है और इनको समुन्नत करने के अलावा ज़्यादा विकल्प उपलब्ध नहीं है. 


शनिवार, 22 मार्च 2014

पासवर्ड : क्या करें, क्या न करें

मेरे एक मित्र हैं जिन्हे अंतरजाल से मोह तो है लेकिन पासवर्ड याद करने का लफड़ा वे पालते नहीं। उनका मानना है की तकनीक को जितना सर चढ़ाओगे परेशानी उतनी ही बढ़ेगी, अब पासवर्ड याद रखने के अलावा दुनिया में और भी काम हैं.  

मेरा यह कहना है के जैसे-जैसे इंटरनेट का मायाजाल हम सबको अपनी चपेट में ले रहा है वैसे- वैसे इस बात कि सम्भावनाएं बढती जा रही है की हमारी सूचनाएं जिन्हे हम इंटरनेट पर बेफिक्री से साझा करते हैं उनका क्या होगा? विज्ञान वरदान और अभिशाप दोनों हैं. आये दिन की घटनाएं इस बात का संकेत देती हैं के अब सावधान होने का वक़्त आ गया है. "123456" या "password " को अपना पासवर्ड बनाने से हमें परहेज करना ही पड़ेगा।


हाल ही में संपन्न CeBIT, जिसे दुनिया का सबसे बड़ा हाई-टेक मेला कहा जाता है के दौरान तकनीक के जानकारों ने पासवर्ड सम्बन्धी लापरवाही को व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए एक बड़ा खतरा बताया। इस बात से किसी को इंकार नहीं है के आज कि दुनिया और उसकी पेचीदगी में अनेक पासवर्ड को याद रखना व्यवहारिक नहीं और हम या तो उसे कहीं लिख लेते हैं या जो सबसे आसान पासवर्ड् बन पड़ता उसका चुनाव कर लेते हैं, यह सही नहीं है. साइबर क्राइम कि बढ़ती घटनाओं से हमें सीख लेनी पड़ेगी।

आइये जानें कि कैसे पासवर्ड्स का चुनाव करें और खुद को सुरक्षित बनाए रखें।

क्या करें:

- ऐसे पासवर्ड का चुनाव करें जिसका आसानी से अनुमान न लगाया जा सके. जैसे अपने नाम के शुरआती        अक्षर, 654321, या फिर गाडी या घर नंबर इत्यादि 
- पासवर्ड में बड़े (कैप्स) अक्षर और छोटे (स्माल लेटर्स) अक्षर को मिलाएं, इसके अलावा कुछ अंक और स्पेशल करैक्टर जैसे (@, #, $, %) इत्यादि को भी शामिल करें 
- पासवर्ड को कम से कम आठ अक्षरों का बनाएँ क्युंकि जितना बड़ा आपका पासवर्ड होगा उसका  पता लगाना उतना ही मुश्किल होगा 
- आपका पासवर्ड जितना निरर्थक और रैंडम होगा उतना अच्छा 
- अलग - अलग एकाउंट्स का अलग- अलग पासवर्ड रखें 
- और हाँ! पासवर्ड को एक अंतराल पर बदलना अत्यंत आवश्यक है 

क्या न करें:

- अपना उपनाम अथवा अपने से जुड़ा कोई नंबर जैसे जन्मतिथि इत्यादि को पासवर्ड न बनाएँ 
- अपने लॉग इन नाम को अपना पासवर्ड कत्तई न बनाएँ 
- अपने परिवार के सदस्य का नाम या अपने कुत्ते के नाम को पासवर्ड न बनाएँ 
- 123456, 654321, password दुनिया में सबसे ज़यादा रखे जाने वाले पासवर्ड्स और इनका सबसे ज़यादा दुरूपयोग होता है. साइबर क्रिमिनल्स को सीधा न्योता न भेजें।
- अपना पासवर्ड किसी को भी ना दें और ना ही इसे कहीं लिख कर रखें 

छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रखकर आप अंतरजाल पर सुरक्षित महसूस कर सकते हैं.

बुधवार, 19 मार्च 2014

मोबाइल चार्जर : एक नयी पहल

मोबाइल फ़ोन नयी सम्भावनाओं के संकेत दे रही है. चाहे किसान हो या जवान, गाँव हों या शहर सब इसके रंग में रंगते जा रहे हैं. दुनिया पूरी तरह मुट्ठी में आ चुकी है. समस्या तब हो जाती है जब आपके घर में पांच मोबाइल हों और सबके चार्जर भिन्न हों, आप समझ गए होंगे मैं किस अफरातफरी कि बात कर रहा हूँ. बिजली आयी है कब तक रहेगी इसका ठिकाना नहीं, चार्जर मिल नहीं रहा और मिल भी जाए तो प्लग पॉइंट्स पर कब्ज़ा हो चुका है. इंसान करे भी तो क्या करे. अगर यह लोकसभा चुनाव हों भी जाए तब भी भारत अमेरिका हो जाएगा इसकी गारेंटी तो है नहीं. बिजली कि समस्या चुनाव कि समस्या से परे है.

खूबसूरत बात यह की इस तरह की तमाम समस्याओं के बावजूद मोबाइल फोन्स जिस तरह हमारे जीवन का हिस्सा बनें हैं उससे एक बात साफ़ हो जाती है की इनको चार्ज करने कि समस्या का हल भी ढूंढ ही लिया जाएगा। आइये जाने कि इस विषय में हम कितना आगे बढ़ रहे हैं.   

भवंरजाल
भवंरजाल 
आवश्यकता आविष्कार कि जननी होती है. सौर्य ऊर्जा से चलने वाले चार्जर का सफल परीक्षण हो चुका है और इसके सार्थक होने कि प्रचूर सम्भावनाएं हैं. सूरज कि रौशनी से काम करने वाले ये चार्जर वैसे इलाकों के लिए वरदान साबित होंगे जहां बिजली नहीं है. इससे बहुमूल्य ऊर्जा कि बचत होगी वो अलग. मुझे तो ऐसे चार्जर का बेसब्री से इंतज़ार है.

सोलर चार्जर
सोलर चार्जर 
एक और सार्थक पहल हुई है वह है वायरलेस चार्जिंग। यह एक काफी तेजी से लोकप्रिय हो रही चार्जिंग पद्धति बनती जा रही जिसमे एक छोटे से प्लेटफार्म पर फ़ोन को रख भर देने से डिवाइस चार्ज होना शुरू हो जाता है. कई सारे मॉडलों में या सुविधा आ भी गयी है. हाँ इसका आम होना अभी बाकी है.

Wireless Mobile Charger
वायरलेस मोबाइल चार्जर 
एक जो सबसे सहज उपाय सामने आया है वह सब मोबाइल का समान चार्जर होने कि परिकल्पना। हालाँकि यह परिकल्पना काफी तेज़ी से यथार्थ का जामा पहन रही है और आज आप आसानी से नोकिआ फ़ोन को सैमसंग फ़ोन से चार्ज कर सकते हैं.

मजे कि बात यह है कि इसी १७ मार्च को युरोपीय संघ ने भारी बहुमत से एक बिल पास करते हुए मोबाइल निर्माताओं को यह आदेश जारी किया है कि यूरोप में बेचे जाने वाले सभी मोबाइल फोन्स के चार्जर एक सामान होंगे। कहा जा रहा है कि इससे सिर्फ यूरोप में इलेक्ट्रॉनिक कचरे में सालाना  ५० हज़ार टन से भी ज़यादा कि कमी आएगी।

युनिवर्सल चार्जर
युनिवर्सल चार्जर 
सनद रहे के आज बाज़ार में ३० से भी ज़यादा तरह के मोबाइल चारजर्स का इस्तेमाल हो रहा है. हमारी सरकार को भी कुछ सीखना चाहिए। नहीं ? 

images: flickr

सोमवार, 10 मार्च 2014

नोकिआ की नयी शुरुआत एंड्राइड के साथ

नोकिआ एक्स को लांच करते  नोकिआ इंडिया के मैनेजिंग मैनेजिंग डायरेक्टर  पी. बालाजी, मार्च १०, २०१४  (फ़ोटो : पी टी आई )  
नोकिआ का पहला एंड्राइड फ़ोन आज आधिकारिक रूप से भारतीय बाज़ारों में लांच कर दिया गया है. इसकी कीमत भी रु ८,५९९ रखी गयी ताकि एक बड़ा वर्ग इसका खरीददार बन सके. वर्ल्ड मोबाइल कांग्रेस में इसकी चर्चा तो थी लेकिन इतनी जल्दी यह भारतीय बाज़ारों का रुख करेगी इसका अंदाजा नहीं था  वह भी वर्ल्ड मोबाइल कांग्रेस में इसकी घोषणा के केवल कुछ सप्ताह के बाद.

नोकिआ एक्स एक ४ इंच का डुअल सिम फ़ोन है, जिसमे ४ इंच का स्क्रीन,  1 GH का डुअल कोर प्रोसेसर, 512 रैम, 3 मेगापिक्सेल कैमरा और 1500 mAh कि बैटरी लगी है.

देखने वाली बात यह होगी के नोकिआ अपने इस एंड्राइड फ़ोन को आशा और लुमिआ सीरीज जो विंड़ोस बेस्ड स्मार्ट फ़ोन है को कैसे साथ साथ बेच पाती है.