लैंडलाइन फोन्स : सब दिन होत न एक समान लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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रविवार, 15 जून 2014

लैंडलाइन फोन्स : सब दिन होत न एक समान

ट्रेन में सफर के दौरान जो सबसे अनोखी चीज़ खिड़की से बाहर दिखती थी वह होते थे टेलीफोन के खम्भे और उनके लहरों की तरह बहते नीचे-ऊंचे तार. पंछियों ने अब  शायद नए ठिकाने ढूंढ लिए हैं लेकिन एक ज़माने में उनकी शामें उन्ही टेलीफोन के तारों पर गुजारते देखा है मैंने। टेलीफोन के खम्भे का दरवाजे पर लग जाना मामूली बात नहीं थी तब। तीन महीने की सरकारी महकमे में धक्का मुक्की के बाद सरकारी कृपा बरसने का नाम था लैंडलाइन फ़ोन. समय की  बेवफाई  कहें या भाग का लेख लेकिन लैंडलाइन के घटते महत्व ने उन सरकारी बाबुओं और तकनीक विशेषज्ञों को भी हासिये पर लाकर खड़ा कर दिया है. मुई मोबाइल क्या न कराये?



हमारे घर कभी टेलीफोन नहीं आया क्यूंकि पापा को ये तकनीकी पेशोपेश चोंचले लगते थे और चिट्ठियों और कागज़ के पन्नों में उन्हें ज़्यादा आत्मीयता महसूस होती थी. हमने एक बार मोबाइल ही लिया और लगभग एक दसक से उसी को यूज़ करते आ रहे हैं लैंडलाइन की कभी जरूरत पेश ही नहीं आई. बहुत सारे लोगों की शायद यही कहानी है. 

शुरू में यह लगा था की कॉल रेट्स और बैटरी की निर्भरता शायद मोबाइल फ़ोन का हाल पेजर जैसा कर देंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. कॉल दरों में बेतहासा कमी आई, मोबाइल फ़ोन सस्ते  हुऐ और सबसे बड़ी बात इसने बहुआयामी संभावनाओं का पिटारा खोल दिया।

विल डाल्टेन ने २०१२ में प्रकाशित अपने लेख में कहा था के अगले पांच साल के अंदर लैंडलाइन फ़ोन्स विलुप्त हो जाएंगे। मुझे लगता है दुनिया उसी ओर अग्रसर है. मोबाइल फ़ोन्स की आसान उपलब्धता ने मानो यकायक ही लैंडलाइन के जमे जमाये खेल को बिगाड़ कर रख दिया है. घर के कोने से आती ट्रिंग ट्रिंग की शानदार आवाज़, चोंगे को शान से थाम कर दूरियां मिटाने वाली इस तकनीक से न सिर्फ शहरी बल्कि ग्रामीण उपभोक्ताओं का मोह भांग हो रहा है.


अब दो तरह के लोग ही लैंडलाइन फ़ोन रख रहे हैं पहले जिनका नंबर बहुत पुराना है और इसके मोह से वे उबर नहीं पा रहे या फिर उनके कारोबार का काम इसके बिना नहीं चल सकता। जिस तरह तमाम नए ऑफिसेस डेस्कटॉप से दरकिनार हो रहे है वह समय दूर नहीं जब लैंडलाइन, कारोबार से भी विलुप्त हो जायेंगे। इतिहास में इस नए पन्ने का जुड़ना लगभग तय है.

आप क्या कहते हैं ?