शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

लैपटॉप खरीदने से पहले क्या जाने … ?

डेस्कटॉप अपना बोरिया बिस्तर समेट कर इतिहास के पन्नों का हिस्सा होने को है. हाल यह है के इसकी बिक्री दुनिया भर में घट रही है और आंकड़े यह साबित कर रहे हैं के भारत में भी अब इसका भविष्य नहीं। इसके साथ एक युग का अंत भी हो जाएगा, भारतीय घरों के ड्राइंग रूम का वो कोना सुन सान हो जाएगा जहाँ शान से पर्सनल कंप्यूटर विराजमान हुआ करता था.

मेरा वास्ता कंप्यूटर से बहुत देर से पड़ा. १९९८ की बात है, उन दिनों मैं कॉलेज में था और हमने दोस्तों के साथ कंप्यूटर सीखने कि ठानी और ऐसा इंस्टिट्यूट चुना जो गर्ल्स होस्टल के बराबर में था. एडमिशन के लगभग ४ दिनों के बाद सभी बैचेस को साथ में बुलाया गया ताकि सबको इकट्ठे कंप्यूटर दिखाया जा सके. अब क्या बताऊँ एक एक चीज़ें सामने लायी जा रही थीं और मंत्र मुग्ध हुआ उन्हें देखता जा रहा था. भला मनुष्य को और क्या चाहिए? यह मशीन मिले और मोक्ष को प्राप्त हो जाए. अगले एक साल तक मैंने बेसिक्स और फॉक्स प्रो सीखा और सोचता रहा के कैसे मेरा भी एक पर्सनल कंप्यूटर हो. 

इस मौके को आते आते कई साल बीत गए. २००८ में मैंने पक्का किया के मैं अब अपना कंप्यूटर खरीद कर ही दम लूँगा और मैंने अपना लैपटॉप खरीदा। लैपटॉप इसलिए कि यह मुझे एक चमत्कारी यन्त्र लगा जिसे आप आसानी से अपने साथ रख सकते थे, बिजली चली भी जाए तब भी यह एकाएक बंद नहीं पड़ता था और सबसे ख़ास बात इससे ऊर्जा कि बचत भी काफी थी. 

लपटॉप कि तकनीक और क्षमता में पिछले छह सालों में बहुत बदलाव आये हैं. विकल्पों कि भरमार है और जरूरत के हिसाब से इनका निर्माण और खरीद-फरोख्त हो रहा है. ऊपर से नित नए विज्ञापनों ने इसको और लोक लुभावन बना दिया है. आम खरीददार के लिए आज लैपटॉप का चुनाव आसान नहीं रह गया है. क्या लें और क्या ना लें इसका असमंजस है के कम होने का नाम नहीं लेता। 

चलिए जानते हैं के कैसे कुछ आधार भूत चीज़ों का ख्याल रखकर आप अपने लिए एक अच्छा लैपटॉप खरीद सकते हैं:

अपनी आवश्यकताओं का आकलन करें:

लॅपटॉप खरीदने से पहले आप यह सुनिश्चित कर लें की आपकी आवश्यकताएं क्या हैं? आपने इंटरनेट चलाना है और माइक्रोसॉफ्ट ऑफिस पे काम करना है या फिर आप इंजीनियरिंग के छात्र हैं और आपको फ़ोटो शॉप या कोरेल ड्रा जैसी डिज़ाइन के काम आने वाली सोफ्टवर्स को चलाना है. कहीं आप गेम्स और मूवीज के लिए तो इसे नहीं लेना चाहते?   

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह के आपका बजट क्या है. रोज़मर्रा के साधारण कार्यों के निष्पादन के लिए बहुत ज़यादा पैसे खर्चना चतुराई नहीं होगी। रु ३०, ००० के आस-पास ही आपको अच्छे लैपटॉप मिलने शुरू हो जायेंगे जिससे पर्सनल कंप्यूटर के सारे कार्य बड़ी आसानी से किये जा सकते हैं. 

बैटरी

लैपटॉप का सुविधाजनक होना ही इससे डेस्कटॉप से अधिक लोकप्रिय बनाता है और इसके लिए लैपटॉप के बैटरी का सही होना अत्यंत आवश्यक। एक बार फुल चार्ज होने के पश्चात लैपटॉप की बैटरी अमूमन ४ से ८ घंटे के बीच चलती है. आप इस बात कि गाँठ बाँध लें कि सेल्समैन और विज्ञापन में बतायी गयी बैटरी लाइफ से आपका लैपटॉप दो घंटे कम ही चलेगा। आप अपने लैपटॉप का उपयोग कैसे करते हैं यह भी बैटरी लाइफ के कम या ज्यादा होने को तय करेगा। 


यह जरूर पूछें कि आपके लैपटॉप कि बैटरी में कितने सेल लगे हैं. अमूमन ६ से ९ सेल कि बैटरीज ज्यादा लोकप्रिय हैं. ख्याल रखें जितने ज्यादा सेल होंगे बैटरी कि लाइफ भी उतनी ही अधिक होगी।

आकार और वजन 

सुविधा कि अगर बात चली है तो यह भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि आपका लैपटॉप है कितना बड़ा और इसका वजन क्या है. ये दोनों चीज़ें जितनी अधिक होंगी यह उतना ही कम सुविधाजनक होगा। आज अल्ट्राबुक का ज़माना है जहां लैपटॉप्स का वजन दिन प्रतिदिन घटता ही जा रहा है. औसतन २.३ किलो से  शुरू होकर लैपटॉप्स १ किलो तक हलके हो सकते हैं लेकिन लैपटॉप जितना हल्का होगा उसकी कीमत भी उसी हिसाब कि होगी इसका ख्याल रखें।


जहां तक आकार का सवाल है १७ इंच (४३ सेमी) सबसे बड़ा आकर माना जाता है और यह घटता हुआ १३ इंच (३३ सेमी) तक आता है. बाज़ार में इससे कम आकर के लैपटॉप आपको मिलेंगे लेकिन उसके गुणवत्ता को खरीदने से पहले ज़रूर जांचे परखें।  स्क्रीन में पिक्सेलस के बारे में जरूर पूछें वे जितना अधिक होंगे  पिक्चर क्वालिटी उतनी ही अच्छी होगी, हाँ! बैटरी भी उतनी ही ज्यादा खर्च होगी।  

प्रोसेसर और ग्राफ़िक 

आम खरीददार के लिए सही प्रोसेसर का चुनाव एक बड़ी समस्या है और आपके लैपटॉप कि क्षमता का निर्धारण इसी से होता है. प्रोसेसर जितना दमदार होगा आप अधिक से अधिक काम एक साथ अपने लैपटॉप पर सहज ही कर पाएंगे। हर छह महीने में अपग्रेड होने वाले वाली इस तकनीक से सबसे बेहतर का चुनाव कठिन है. आज कि सबसे बेहतर तकनीक कुछ महीनें में ही दोयम दर्जे कि हो जायेगी।  



आसान तरीका यह है कि लैपटॉप खरीदते वक़्त कि जो सबसे समुन्नत तकनीक है उसका चुनाव कर लिया जाये। विंडोज के अधिकांश लैपटॉप्स इंटेल का प्रोसेसर इस्तेमाल करते हैं. i३ से i ५ के प्रोसेसर इंटेल के सबसे अच्छे प्रोसेसर्स में शुमार हैं.  एक और बात, डुअल कोर प्रोसेसर अब पुराने पड़ते जा रहे हैं अतः क्वैड कोर प्रोसेसोर्स का चुनाव करें जो कम ऊर्जा खाकर ज्यादा काम कर पाते हैं. इंटेल के अलावा एमडी के इ सीरीज के प्रोसेसर गेम्स और हैवी ड्यूटी कार्यों के लिए बेहतर बताये जाते है. एप्पल के लैपटॉप्स अपना खुद का प्रोसेसर यूज़ करते हैं जो अपने आप में बहुत अच्छा है.

ग्राफ़िक्स का इस्तेमाल गेम्स और हाई डेफिनिशन कि मूवीज देखने के लिए किया जाता है. ज्यादातर ग्राफ़िक कार्ड्स प्रोसेसोर्स के साथ ही काम करते हैं सुर अलग से ग्राफ़िक कार्ड्स लगाने कि आवश्यकता नहीं पड़ती। आप इसकी मौजूदगी के बारे में पूछताछ जरूर करें।

रैम और स्टोरेज 

यहाँ हम मेमोरी कि बात करेंगे। मेमोरी यानि आपके निर्देशों का पालन आपका लैपटॉप कितनी जल्दी कर पायेगा। एक वर्ष पहले तक १GB रैम ठीक ठाक मना जाता था लेकिन आज आपके लैपटॉप में ४GB रैम का होना अनिवार्य है. 



कुछ सालों पहले तक भारी हार्डडिस्क का ज़माना था लेकिन आज के सिलिकॉन बेस्ड उच्च क्षमता वाले हार्डडिस्कस ने  लैपटॉप कि स्टोरेज को नए आयाम दिए हैं. २५०GB से १TB तक कि स्टोरेज क्षमता वाले किसी भी लैपटॉप का चुनाव आप कर सकते हैं. क्लाउड कंप्यूटिंग और एक्सटर्नल हार्डडिस्क के जमाने में किसी भी हार्डडिस्क के स्टोरेज को बढ़ाना अब मुश्किल नहीं रहा. 

वारंटी और आफ्टर सेल्स सर्विसेज

यह एक ऐसा पहलू है जहां एक मंजे हुए खलाड़ी और एक नौसिखिये खिलाडी कि परख होती है. भरोसेमंद ब्रांड्स कि विस्तृत वारंटी और इसको कवर करने वाले सर्विस सेंटर्स कि संख्या जहाँ उपभोक्ताओं को अपने से जोड़े रखते हैं वहीँ समानता का दवा ठोकने वाले ब्रांड्स कि भी कमी नहीं जिनके लिए सामान बेच देना ही उनका एक मात्र लक्ष्य। लैपटॉप बंद पड़ने पर आप कहाँ संपर्क करेंगे वो आपको कैसी सुविधा दे पाएंगे इससे उनको कोई सरोकार नहीं होता। आप ब्रांड के बारे में जाने, उनके सर्विस सेंटर के बारे में पता करें, वारंटी क्या है और अंतर्राष्ट्रीय वारंटी है या नहीं इस पर बात करें। कई बार कुछ और रकम डकैत वारंट पीरियड को बढ़ाया जा सकता है इसके बारे में भी पता करें।

बड़े स्टोर्स में महंगे इलेक्ट्रॉनिक् संयत्रों का बीमा भी किया जाता है, जिसके बाद अगर आपका लैपटॉप गुम होता है अथवा किसी और तरह से इसकी क्षति होती है तो आपको बीमे कि रकम आसानी से मिल जाती है. इसके बारे में भी पता लगाएं।

थोड़ी सी छान बीन थोड़े सी जांच परख से आप अपने पैसे का बेहतर उपयोग कर एक अच्छे संयंत्र का मज़ा लूट पाएंगे।  

Image courtesy : Flickr.com

सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

टेबलेट क्या है

आपको याद होगा जब आपने पहली दफा टीवी देखा था. अगर आप अस्सी के दसक से रुबरू हो तो त़ाला लगाने योग्य काठ के बक्से में बंद श्वेत श्याम टीवी की बात अब तक आपके जहन में होगी। रामायण और महाभारत देखने की ललक, समय पर बक्से का खुलना और फिर वह आधे पौने घंटे का धारावाहिक जिसके सब दीवाने थे. उस समय हमें यह लगता था के तकनीक ने इतना विकास कर लिया है अब क्या होगा भला. लेकिन इसके बाद भीमकाय रंगीन टीवी का युग आया और तब लगा के बस, अब तो सिनेमा हॉल भी घर पर आ गया. उस समय के टीवी की तुलना आप आज के टीवी की तकनीक से करें जहाँ आपको कांच जितनी पतली, पहले से बेहतर पिक्चर क्वालिटी और रख रखाव मे सुविधाजनक टीवी तब मालूम होता है के हम कितने दूर आ चुके हैं. यह एक अनवरत प्रक्रिया है और आगे बढती रहती है.

कहने का मतलब है आधुनिक मनुष्य का विकास उसके तकनीक के क्रमिक विकास के साथ सीधा जुडा हुआ है. अब टेबलेट को ही लीजिये. सिर्फ पांच साल पहले तक इसका मतलब ऐसी वस्तु से था जिसे अंग्रेजी में खाने वाली औषधि का पर्याय समझा जाता था. तब तक दुनिया के अधिकांश देश टेबलेट पी सी की वास्तविकता से अनाभिज्ञ थे. 

पिछले लगभग २० वर्षों में संगणकों (कंप्यूटर) के बढ़ते महत्व ने इसके विकास की गति को तीव्र बना दिया है. पहला कंप्यूटर जिसको चलाने के लिए एक पूरा कमरा लगता था उसके बाद डेस्कटॉप जहाँ मेजों पे रखकर इसका उपयोग संभव हुआ और कई दसकों तक यह दुनियाभर में अत्यंत लोकप्रिय बना रहा, उसके बाद गोद में लेकर काम करने योग्य कंप्यूटर, जी हाँ लैपटॉप का युग शुरू होता है जो कमो बेस आज भी लोकप्रिय है. अब इसके बाद की कड़ी है टेबलेट जहाँ स्लेट की तरह आप इसका इस्तमाल कर सकते है और सब कुछ स्पर्श से संचालित होता है. 

आइये टेबलेट के बारे में कुछ और जानें:

इस छोटे किन्तु शक्तिशाली मशीन की सबसे बड़ी खासियत है इसका अत्यंत सुविधाजनक होना। इंसान के छूने की शक्ति को और बल देता यह तकनीक यह इन्गीत करता है के संगणकों का भविष्य कैसा होगा। अमेरिका में लगभग ४० प्रतिशत आबादी के पास टेबलेट है इसका प्रसार बड़ी तेज गति से दुनिया के सभी देशों में हो रहा है. स्मार्ट फ़ोन और लैपटॉप के बीच की यह कड़ी दोनों ही तकनीकों को अपने में समाहित किये हुए है. आप इसका इस्तेमाल ऑफिस के काम के लिए कर सकते हो, फ़िल्में देख सकते हो, संगीत का आनंद उठा सकते हो, अंतर्जाल से जुड़ सकते हो और मोबाइल की तरह इससे कॉल किया और रिसीव किया जा सकता है. दूसरी बात के मोबाइल के तरह आप इसे अपने साथ ले जा सकते हो इसकी बैटरी चार्ज कर सकते हो इत्यादि इत्यादि। 

स्टोरेज क्षमता की बात करें तो क्लाउड कंप्यूटिंग से आप लगभग जितनी चाहे उतनी चीजें सेव कर सकते है. सम्मुन्नत कैमरा, स्पीच रिकग्निशन, जीपीएस, वाई फाई, ब्लू टूथ और न जाने कितनी सुविधाएं इसके अन्दर पिरोई गयी हैं.

टेबलेट के दाम रु ३००० से शुरू होकर रु १,००,००० तक हो सकते है. यहाँ यह समझना जरूरी है के आपकी जरूरतें क्या है. विकल्पों की भरमार है और अपनी आवश्यकताओं के हिसाब खरीदने से पहले की जांच परख आवश्यक। आप मेरा ब्लॉग 'टेबलेट खरीदने से पहले क्या जानें' को पढ़ सकते हैं. पढने के लिये यहाँ क्लिक करें .   

 

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

दास्ताने नोकिया

फ़िनलैंड का नाम दुनियाभर में बड़े प्रतिष्ठा से इसलिए लिया जाता है की उसकी शिक्षा व्यवस्था का कोई जोड़ नहीं है. शिक्षा को रोज़मर्रा के जीवन से ऐसे जोड़ दिया गया है के पढाई के बाद विद्यार्थी नौकरी की तलाश नहीं करते उन्हें पता होता है उन्हें करना क्या है. बहरहाल दूसरा कारण जो इस छोटे से बर्फानी देश को प्रसिद्ध करता है वह है नोकिया। असल में नोकिया का इतिहास फ़िनलैंड के निर्माण से भी पुराना है. कैसे? अब खुद ही देख लीजिये - नोकिया की स्थापना १८६५ में हुई थी और फ़िनलैंड १९१८ में आजाद हुआ. नोकिया बाद में एक ऐसा मोबाइल ब्रांड बना जो एक दशको तक मोबाइल हैंडसेट का पर्याय बना रहा. जिसने १.२ बिलियन लोगों को आपस में जोड़ देने का करिश्मा कर दिखाया। 

लगभग १५० साल पहले एक छोटे से कागज़ और रबर बनाने के कारखाने से इसकी शुरुआत होती है और अपनी उत्पादों से यह लोगों का विश्वास जीतती है. १९१२ तक नोकिया के पास कोई भी इलेक्ट्रॉनिक अनुभव नहीं था लेकिन तकनीक के त्वरित विकास पर नोकिया की नज़र जरूर थी. सत्तर के दसक तक इसने टेली कम्युनिकेशन में अपनी पैठ बना ली थी और १९८७ तक नोकिया यूरोप में टीवी का तीसरा सबसे बड़ा निर्माता बन चुका था. इसी साल उसने काफी मशक्कत के बाद अपना पहला मोबाइल "मोबिरा सिटीमेन" बाज़ार में पेश किया।  ८०० ग्राम वजनी और लगभग साढ़े चार हज़ार यूरो महंगा यह फ़ोन अगले एक दसक तक दुनिया भर के लोगों का दुलारा बना रहा. भारतीय बाजार अभी भी मोबाइल टेलीफोनी से काफी दूर थे.

१९९१ में फ़िनलैंड के प्रधान मंत्री ने दुनिया का पहला GSM कॉल अपने नोकिया फ़ोन से ही किया और उसके एक साल बाद ही नोकिया ने अपना दूसरा मॉडल बाज़ार में पेश किया - नोकिया १०११ यह सही मायने में एक नया फ़ोन था और इसने मोबाइल हैंडसेट की तकनीक को नयी दिशा दी. पहली बार ये लगा के मोबाइल फ़ोन रोज़मर्रा के इस्तेमाल की वस्तु बन सकती है. नोकिया की लोकप्रियता थी के कमने का नाम ही नहीं ले रही थी. कंपनी ने आनन् फानन में यह विचार किया की उनका अब पूरा ध्यान मोबाइल हैंडसेट की निर्माण पर लगेगा। बाकी के उनके कारोबारों को धीरे धीरे ठिकाने लगा दिया गया. नोकिया की लोकप्रियता का यह आलम था के इसके बिना मोबाइल फ़ोन की कल्पना करना भी मुश्किल लग रहा था. 

इसके बाद फीचर फ़ोन का ज़माना शुरू होता है जहाँ मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल सन्देश (SMS), संगीत, गेम्स के लिए किया जाना शुरू हुआ. यहाँ भी नोकिया ने बाजी मारी। गौर तलब बात यह थी अब सब कुछ इतना आसान नहीं रह गया था. नए ब्रांड और नयी तकनीक ने विकल्पों की भरमार ला दी थी लेकिन नोकिया ने अपने कदम जमाये रखा. फ़रवरी २०११ में माइक्रोसॉफ्ट के साथ नोकिया का पहला करार हुआ और पहली बार नोकिया के विंडोज फोंस को बाजार में उतारा गया. तब तक मोबाइल बाज़ार ने एप्पल फोंस और एंड्राइड फोंस का  स्वाद चखना शुरू कर दिया था और नोकिया को इस बदलते माहौल का अंदाजा देर से हुआ लेकिन हो चुका था. 

बाज़ार में कमाई गयी प्रतिष्ठा अगले कुछ साल तो नोकिया के काम आई लेकिन ताबड़ तोड़ बदलते तकनीक और सैमसंग, एप्पल जैसे प्रतिद्वंदियों ने नोकिया का किला भेदने में कोई कसर नहीं छोड़ा। लुमिया और आशा सीरीज ने भी ज्यादा कमाल नहीं दिखाया और  साल दर साल घाटे को जूझने का परिणाम यह हुआ के न सिर्फ कर्मचारियों को निकाला गया बल्कि हेलसिंकी का नोकिया हेड ऑफिस तक इस बदहाली की बलि चढ़ गये. 

सितम्बर २०१३ में यह ख़बरें आनी शुरू हो गयी थी के माइक्रोसॉफ्ट हो न हो नोकिया को खरीद ले. और यही हुआ, एक दिन खबर आई के माइक्रोसॉफ्ट ने नोकिया का मोबाइल डिवीज़न खरीद लिया है. माइक्रोसॉफ्ट हालांकि यह कहने से बाज नहीं आ रहा के २०१६ तक यह बिज़नस मुनाफे का नहीं हो पायेगा। वही नोकिया जिसने २००७ तक ४० प्रतिशत मोबाइल बाजार पर काबिज था आज यह सिमट कर १५ प्रतिशत रह गया है और स्मार्ट फोंस की हिस्सेदारी तो सिर्फ ३ प्रतिशत। एक ज़माने में नोकिया फ़िनलैंड के GDP का ४ प्रतिशत हिस्सा था जो अब ०.४ प्रतिशत रह गया था. फिन्निश लोगों ने शायद इसके पतन को पढ़ लिया था और वहां की सजग सरकार ने अपना ध्यान दुसरे उद्योगों के विकास की ओर लगा दिया था   

२०१४ तक यह डील पूरी हो जायेगी और नोकिया के लगभग ५००० कर्मचारी एक साथ अपनी कंपनी बदलेंगे। किसके हितों का कितना ख़याल रखा जायेगा यह तो वक़्त ही बताएगा। माइक्रोसॉफ्ट के लिए फ़िनलैंड शायद तीसरा सबसे बड़ा हब हो जाए और यहाँ से फ़िनलैंड एक और नयी शुरुआत करे ऐसा सम्भव है। नोकिया के अधिकारी इस बात को नकार नहीं रहे के कुछ और नया होने वाला है और एक बार फिर एक फिन्निश ब्रांड दुनिया का चहेता बनेगा। पांच में से तीन डिवीज़न न बेचकर नोकिया ने यह जरूर जताया है के पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त! रोविओ एक और बेहद लोकप्रिय फिन्निश ब्रांड जिसने एंग्री बर्ड बनाकर मोबाइल गेम्स को एक नयी परिभाषा दी है साबित करती है  प्रतिभा और सही शिक्षा साथ मिले तो चमत्कारों की अपेक्षा फ़िनलैंड से की जा सकती है.     

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

एप्पल आई फ़ोन ५सी और ५एस - अंगूर खट्टे हैं

लीजिये त्योहारों का मौसम शुरू हो गया. बरसात ने अपना बोरिया बिस्तरा बांधना शुरू कर दिया है और सुबह मे उठना और मुश्किल हो रहा है। सर्दियों की दस्तक साफ सुनाई पड़ने लगी है और हवा मे दशहरे की खुश्बू महसूस की जा सकती है. धान की बोझों का आगमन इस बात का सन्देश दे रहा होता है की खुशिया मनाने के दिन आ गए हैं। हरे पीले धान के पौधों का का बोझ उठाये किसान खुश होकर घरों को लौट रहे होते हैं और नए चावल के मांड की मिठास के बारे में सोच सोच उसके कदम तेज़ होते जाते हैं।

शहर में ऐसा नहीं होता। जिस तरह पूरण मासी और अमावस्या से सरोकार नहीं रहा ठीक वैसे ही नया चावल और नए गेहूं की रोटियों का स्वाद मन भूल सा गया है। यहाँ जीने की सुविधा इतनी ज्यादा है की बदलाव का कोई असर नहीं रह जाता। चीजें अमूमन एक जैसी ही रहती हैं हमेशा। जतन करके यथास्थिति बनाए रखी जाती है। 

आई फ़ोन ५सी और ५एस के बारे में सुनकर खुशफहमी हुई थी की आखिरकार एप्पल ने गरीबों की गुहार सुन ही ली। अब भला इससे सस्ता और इससे अच्छा उपहार आप खुद को क्या दे सकते हैं इस दिवाली। ख़ुशी का बुलबुला तब फूटा जब पता चला भारत अब भी एप्पल की प्राथमिकताओं में से एक नहीं है और भारतवासियों को इसके लिए थोडा और इंतज़ार करना होगा। पर सीमाओं की दुनिया से हम परे हो चुके हैं और कुछ धाकड़ इ कॉमर्स कंपनियां इसे भारतीय उपभोक्ताओं तक पहुचाने से बाज नहीं आ रहीं। दूसरा तरीका यह हो सकता है की आपको मुंबई के मनीष मार्किट जैसी जगह का पता हो। 

सवाल यह है जिस कम कीमत के दावे किये जा रहे थे वह छलावारण जैसा क्यूँ लगता है। पहली बात तो यह की शुरूआती कम कीमत चुकाने के लिए आपको पोस्टपेड प्लान लेना पड़ेगा जिसमे फ़ोन की कीमतें आपसे हर महीने वसूली जायेगी पूरे दो सालों तक। चलिए मान लेते हैं यह कोई आम फ़ोन नहीं एप्पल फ़ोन है और इस तरह लगान वसूलने की उनकी पुरानी प्रक्रिया है। दूसरी बात यह के अगर आप दो साल का करार न करें तब देखिये इसकी कीमत कैसे छलांग लगाती है।

एक और बात आपको नहीं लगता के भारत जो दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा स्मार्ट फ़ोन मार्किट वहां इसे इकट्ठे लांच करना चाहिए था। बाकी सभी कम्पनियाँ तो कर रहीं हैं। हमें क्या एप्पल पचता नहीं? 

दिवाली तक आधिकारिक तौर पर लांच हो जाने वाले ये नए एप्पल फ़ोन अब भी आम आदमी के पंहुच से काफी दूर रहेगा। कहा जा रहा है के ५C की कीमत रु. ४९००० और ५S की कीमत होगी रु. ६४००० .  मैंने तो अपनी बगलें झांकना शुरू कर दिया है। 

आपकी राय बताएं।

बुधवार, 25 सितंबर 2013

डिजिटल दुनिया

 Image: Flickr.com
डिजिटल दुनिया की रफ़्तार देखने  लायक है। सब तरफ कुछ नया हो रहा है। पुराने मापदंड जल्दी जल्दी और पुराने हो रहे हैं और नए नियमों की शब्दावली को रटे रहना अनिवार्य। खून का उबाल है के शांत होने का नाम नहीं लेता, रात को सोते समय डर होता है के कल सुबह तक सबकुछ जो रटा है पुराना तो नहीं पड जायेग। उपापोह का यह आलम है की पूछिए मत। किसी ने सही कहा है "समस्या यह है की आप समझते हैं आपके पास वक़्त है।"

पारंपरिक दृष्टिकोण को सिरे से खारिज किया जा रहा है, मानव सभ्यता को नयी दिशा देने की बातें की जा रही है। चाहे वह शिक्षा हो व्यापार या कला सबके लिए नयी परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं। तकनीक ने हर कोने में अपने पांव फैला दिए हैं। सबसे सकारात्मक पहल यह हुई है के उपभोक्ता और उत्पाद के संबंधों नए ढंग से समझा जा रहा है इस सम्बन्ध को नयी दिशा मिल रही है। सोशल मीडिया के विकास ने उपभोक्ता की आवाज को न सिर्फ प्रखर किया है बल्कि उसे चुनने और न चुनने की महत्वपूर्ण सहूलियत दे डाली है।  उत्पादक और उपभोक्ता दोनों आज एक ही मंच पर खड़े हैं। व्यापार उनके लिए कठिन होता जा रहा है जो उपभोक्ताओं की अपेक्षाओं पर खड़े नहीं उतर रहे। इस विकट परिस्थिति में व्यापार से जुड़े लोगों को आज की तकनीक से और जुड़ना होगा और अपनी पुरानी पड चुकी नीतियों पर पुनः विचार करना होगा। खुद को भी ट्रेन करना होगा और साथ काम करने वाले लोगों को भी।

सीखने की इतनी उपयोगिता शायद पहले महसूस नहीं की गई थी जितना आज के निरंतर बदलते हुए माहौल में। सुखद बात यह है के ट्रेनिंग भी अब सुलभ है। चाहे आप कुछ भी सीखना चाहते हो अंतरजाल की शरण में जाइये और सीख लिजिये। बहुत कम लागत में, अपनी सुविधा और समय के अनुसार। दुनिया के सबसे बड़े और नामी गरमी विश्वविद्यालय और ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट अपने कोर्सेज मुफ्त में ऑनलाइन मुहैया करवा रहे हैं।

हबस्पॉट डॉट कॉम दुनिया की एक सबसे सुप्रसिद्ध डिजिटल सलूशन कंपनीमें से एक है जिसने इनबाउंड मार्केटिंग को दुनिया भर में चर्चा का विषय बना दिया है। इनबाउंड मार्केटिंग से उनका तात्पर्य ऐसी मार्केटिंग रणनीति से है जहाँ अपने वेबसाइट या अपने उत्पाद को इतना प्रखर, सुन्दर और आकर्षक बनाया जाए की लोग उसकी ओर आकर्षक हों आपको ढोल बजाने आवश्यकता नहीं। मार्केटिंग जिसे लोग प्यार करें। कुछ वैसे ही जैसे फेविकल का टीवी विज्ञापन हम सभी को पसंद है चाहे हम कारपेंटर हों या हा न हों।

हबस्पॉट ने इसी साल अपने वेबसाइट पे एक अकादमी पेज को जोड़ा है जहाँ से आप आसानी से इनबाउंड मार्केटिंग  के बारे में पढ़ समझ सकते हैं। यही नहीं सर्टिफिकेशन भी किया जा सकता है और वह भी मुफ्त में। जी हाँ! कहने का मतलब है अच्छी पढाई या अच्छा कोर्स अच्छे पैसे खर्च करने के बाद ही किये जा सकते है इसका मिथक जितना जल्दी टूट जाए उतना ही अच्छा है।

गूगल जैसी नामचीन ब्रांड के पास भी अपना सर्टिफिकेशन कार्यक्रम है जहाँ अब तक आप पूरी पढाई मुफ्त में कर सकते थे, चाहे वो ऑनलाइन किताबें हों या विडियो सब कुछ लेकिन सर्टिफिकेशन करने के लिए परीक्षा देना अनिवार्य था और इसकी कीमत ५० अमेरिकी डालर थी। इसमें बदलाव की घोषणा की गयी है और अब गूगल पार्टनर सर्टिफिकेशन किसी लोकल एजेंसी के साथ मिलकर आप मिलकर मुफ्त में कर सकेंगे। १ अक्टूबर से यह नया प्रावधान लागू हो जाएगा जिससे न सिर्फ व्यवसाय बल्कि डिजिटल मार्केटिंग में रूचि रखने वालों को भी अपने डिजिटल ज्ञान को प्रखर करने का बेहतरीन मौका मिलेगा। 


बस समस्या यह है की हिंदी में यह सब अभी भी उपलब्ध नहीं। मेरी कोशिश रहेगी के मैं गूगल के इस नए पहल के बारे में आपको आगाह रखूँ। यकीन मानिए यह एक बड़े उलटफेर का संकेत है।    

सोमवार, 10 जून 2013

गूगल नेक्सस 4- सैयाँ भये कोतवाल

कुछ ऐसी कंपनियां होती हैं जो बीडी से लेकर बैटल टैंक सब खुद बनाना या बनवाना चाहतीं हैं और ऐसी चाह रखने वालों की कोई कमी नहीं। चाहे अपनी देसी कंपनी रिलायंस हो यह टाटा या फिर विशालकाय विदेशी समूह गूगल या माइक्रोसॉफ्ट। जी हाँ! बिल गेट्स अब माइक्रोसॉफ्ट से उकता कर मलेरिया का निदान ढूंढ रहें हैं। उनका कदम बेशक सराहनीय है लेकिन आपको नहीं लगता की यह एक बदलाव का संकेत है। इस बदलाव का सकारात्मक पहलू यह है की ब्रांड की कार्यकुशलता का फायदा ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँच रहा है और नकारात्मक पहलू यह की 'छोटे की तो खैर नहीं'।

गूगल को पता है के आने वाला दौर स्मार्ट फोंस का है और इससे कन्नी काटना सच्चाई से मुंह छुपाने जैसा है। एंड्राइड को आपाधापी में खरीदकर कंपनी ने यह साबित कर दिया था के मोबाइल फ़ोन तकनीक अब पहले जैसी नहीं रहेगी। हुआ यह है के एंड्राइड अब अमूमन स्मार्ट फ़ोन का पर्याय बन गया है।

गूगल का स्मार्ट फ़ोन ब्रांड बनकर बाज़ार में उतरना एक और दिलचस्प घटना थी, भारतीय बाज़ार हालाँकि गूगल के इस पहल में उपेक्षा के शिकार रहे, लेकिन उत्सुकता थी के कमने का नाम ही नहीं ले रही थी। इस बीच हुआ यूँ के भारतीय बाज़ार में दुनिया भर के सस्ते-महंगे स्मार्ट फ़ोन ब्रांड्स ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली। किसी को जैसे कोई फरक ही न पड़ा हो। गूगल के 'नेक्सस' नामकरण पर शुरुआती विवाद को भी चुपचाप निपटारा करने बाद यह समझ में आने लगा की नेक्सस लम्बे समय तक स्मार्ट फोंस की तकनीक का प्रतिनिधित्व करता रहेगा।

जनवरी 2010 में गूगल ने एच टी सी के साथ मिलकर नेक्सस 1 को बाज़ार में उतारा जिसके स्क्रीन की गुणवत्ता, वौइस् क्वालिटी, फ़ास्ट प्रोसेसर और उसकी कार्यकुशलता को काफी सराहा गया। एक और रोचक बात यह थी की यह किसी खास मोबाइल ऑपरेटर के साथ लॉक्ड फ़ोन की श्रेणी में नहीं आता था।  गूगल नेक्सस 1 हालाँकि एक बहुत उन्नत मीडिया फ़ोन नहीं था लेकिन एक नयी शुरुआत हो चुकी थी। हाँ! गूगल नेक्सस 1 को भारत में नहीं लांच किया गया।

नेक्सस १ 
दिसम्बर 2010 जब एंड्राइड जिन्जेर ब्रेड 2 .3 रिलीज़ हुआ उसी के साथ गूगल नेक्सस एस को सैमसंग के साथ मिलकर अमेरिकी बाजारों में उतारा गया जिसका स्क्रीन एक बार फिर कमाल का था, कॉल क्वालिटी पहले से और बेहतर थी और एंड्राइड जिन्जेर ब्रेड के फीचर्स यूजर को व्यस्त रखने के लिए पर्याप्त थे। आलोचकों की माने तो यह एक बेहतरीन फ़ोन था जिसे और पॉवर फुल बनाया जा सकता था।

गूगल नेक्सस एस
लगभग एक साल बाद नवम्बर 2011 में एक बार फिर सैमसंग के साथ मिलकर गैलेक्सी नेक्सस को पाश्चात्य बाजारों में पेश किया गया। सुपर अमोलेद स्क्रीन और एंड्राइड के नए ऑपरेटिंग सिस्टम आइसस्क्रीम सैंडविच के साथ यह एक प्रभावशाली फ़ोन साबित हुआ जिसमें अच्छे स्मार्ट फ़ोन सारी खूबियाँ मौजूद थीं। इसकी सबसे बड़ी खामियों से एक था इसकी मेमोरी को बढाया नहीं जा सकना। जहाँ एक तरफ यह एक अन्य नेक्सस डिवाइस था वहीँ  दूसरी तरफ सैमसंग के निजी गैलेक्सी फोंस इन सभी परेशानियों को दूर कर बाजारों में धूम मचा रहे थे।

गैलेक्सी नेक्सस
सैमसंग से गूगल का मोहभंग हो चुका था और अब उसे एक ऐसे मोबाइल निर्माता की तलाश थी जो उसके नेक्सस ब्रांड को नयी उड़ान दे सके। पिछले एक दसक में दक्षिण कोरिया  की  कंपनियों  ने जिस तरह विश्व बाज़ार पर हल्ला बोला है वह देखने लायक है चाहे ऑटोमोबाइल हो या मोबाइल सब जगह उनकी तूती बोल रही है। गूगल को एल जी जो खुद भी मोबाइल बाज़ार में अपना आधार ढूँढ रही थी का साथ मिला और दोनों ने मिलकर नेक्सस 4 का सपना देखा। पहली बार एल जी  नेक्सस 4 को भारतीय बाजारों में भी उतारने की भी बात की गयी। मई 2013 में भारतीय बाजारों तक आधिकारिक रूप से पंहुचने वाला यह पहला फ़ोन था जिसकी प्रतीक्षा न जाने कब से की जा रही थी। यह बताना शायद जरूरी नहीं होगा की यह एक प्रीमियम स्मार्ट फ़ोन है और गूगल ने एल जी के साथ मिलकर इसको बनाने में अपनी सारी ताकत झोंक दी है।
एल जी  नेक्सस 4
एंड्राइड 4 .2 के साथ यह एक पॉकेट फ्रेंडली फ़ोन है और इसकी दो वजहें हैं एक की इसकी प्राइस प्रीमियम स्मार्ट फोंस के श्रेणी में सबसे कम है (रु 25,990 मात्र ) और दूसरा यहकी  इसका कम वजन और छोटा (4 .7 इंच सुपर अमोलेद, गोरिल्ला ग्लास 2 स्क्रीन) आकार इसके रख रखाव को आसान बनाता है। इसकी खामियों की बात करें तो पिछले नेक्सस फोंस की तरह आप इसके एक्सटर्नल मेमोरी को बाधा नहीं सकते और न ही इसके 2100 mAH बैटरी को बदला जा सकता है। 4G LTE की कमी भी इसका एक नकारात्मक पहलू जिसकी उपयोगिता आने वाले दिनों में काफी बढ़ने वाली है। लेकिन ये कमियां डील ब्रेकर नहीं हैं  एल जी नेक्सस 4 स्मार्ट फ़ोन का एक बेहतरीन विकल्प है। 

गुरुवार, 16 मई 2013

इ-कॉमर्स का क्रेज

इ-कॉमर्स का क्रेज भारत में बढ़ता ही जा रहा है। पिछले सात सालों से भारत में लगातार लगभग 34 फ़ीसदी की दर से बढ़ता इ-कॉमर्स बाज़ार अब परिचय का मोहताज़ नहीं रहा। नामी गिरामी सर्वेक्षण संस्था फोर्रेस्टर की अगर माने तो भारत में इ-कॉमर्स के बढ़ने की प्रचूर संभावनाए हैं और 2013 से 2016 के बीच इसके विकास की दर 57 प्रतिशत रहेगी जिसपर दुनिया भर की नागाहें रहेंगी। यह एक बड़े उलटफेर का संकेत है।

भारत पारंपरिक रूप से छोटे दुकानों का देश रहा है जहाँ नुक्कड़ के मोदीखाने से घर गृहस्थी का सारा सामान नगद हो या उधार खरीद लेना यहाँ के लोगों को रास आता रहा है। और यह आज भी बदस्तूर जारी है। मुंबई जैसे बड़े नगरों की बात करें तो वहां भी नुक्कड़ के लाला जी की इतनी पूछ है के पिछले कुछ दिनों से LBT (लोकल बॉडी टैक्स) को मुद्दा बनाकर इन्होने सारे शहर की नाक में दम कर रखा है। छुट्टे पैसे लेकर कुछ लाने निकलिए तो पता चलता है दुकाने तो बंद है। अब एक टूथपेस्ट का पैकेट खरीदने के लिए माल्स का चक्कर लगाना मुझे तो रास नहीं आता और अगर छुट्टियाँ हों तो मॉल जाना तीरथ करने जैसा लगता है। वही कतारें, वही भीड़-भाड़, वही आपा-धापी! कहने का मतलब है हम दो राहे पर खड़े हैं जहाँ एक तरफ लाला जी की मुस्कराहट, उनकी बातें, उनका सुबह-सुबह दुकान का खोलना, उधारी, कम तोलना, गुणवत्ता का पैमाना न होना, टैक्स से दूर रहना  इत्यादि बाते है तो दूसरी तरफ मॉल कल्चर जहाँ सबकुछ चम् चमा चम्, गुणवत्ता का भरोसा, होम डिलीवरी,  टैक्स की जिम्मेदारी, ऑफर्स, प्लास्टिक (कार्ड) पेमेंट, प्लास्टिक के बने लोग, सुबह खुलने की सुविधा नदारद इत्यादि इत्यादि हैं।

इ-कॉमर्स इसके आगे की कहानी है जहाँ मोटे तोर पर आप मशीन से खरीदारी करते हो और मशीन से प्राप्त हो सकने वाली सारी सुविधाएं आपको सहज मिल जाती हैं। इ-कॉमर्स की अपार संभावनाओं के बावजूद वास्तविकता यह है की इसका अपेक्षित विकास नहीं हो पा रहा। पिछले छः महीनों में काफी नए इ-कॉमर्स वेबसाइटस आये हैं लेकिन यकीन मानिए इनके बंद हो जाने की रफ़्तार भी त्वरित है। इ-कॉमर्स व्यावसाय के सामने आज कई सारी बाधाएं हैं मसलन भरोसेमंद इन्टरनेट स्पीड की कमी, कार्ड पेमेंट सब नहीं कर सकते, कार्ड पेमेंट करने से डर, डिस्ट्रीब्यूशन के लिए पर्याप्त साधनों का अभाव इत्यादि। ये सारे कारण सही हैं। लेकिन एक और बात जिसपर शायद गंभीरता से विचार नहीं किया गया है वह यह है की अगर हम इन्टरनेट के विकास के पैटर्न को समझें तो हम इस समस्या की थोड़ी विस्तृत जानकारी मिल पाती है और इससे निदान का रास्ता भी आसान हो सकता है


हम शायद यह मान बैठे हैं इन्टरनेट के आगमन की तुरंत बाद ही इ-कॉमर्स परवान चढ़ना शुरू हो जाएगा तो माफ़ कीजिये, यह ग़लत होगा। क्रमगत विकास ही स्वाभाविक विकास है। जल्दीबाजी में घोड़े के आगे गाडी बांध देने से किसी का भला नहीं होगा। मोबाइल, जिसकी विकास यात्रा से हम सब परिचित हैं कैसे शुरू हुआ, मोटोरोला का वो काला  मोबाइल फ़ोन आपको याद होगा जिसका हाथ में होना ही आपको भीड़ से अलग रखने के लिए काफी था। इनकमिंग कॉल्स के भी 16 रु प्रति मिनट लगते थे। इसके बाद एस एम् एस लोकप्रिय हुआ, तब म्यूजिक, कैमरा, गेम्स और अब जाकर इन्टरनेट आया है। ठीक उसी तरह,  इन्टरनेट के आगमन के बाद आमतौर पर लोग पहले ईमेल का इस्तेमाल सीखते हैं तब सर्च इंजन को चलाना तब सोशल मीडिया, गेम्स और तब कहीं ऑनलाइन लेन-देन के लिए उनके मन में भरोसा जागता है। सभी इन्टरनेट यूजर को उपभोक्ता मानकर बनायी गयी रणनीतियां वैसे ही सफल नहीं होंगी जैसे मोटोरोला के उस पहले फ़ोन के लिए इन्टरनेट के आकर्षक प्लान्स घोषित करना जब लोगों ने SMS भेजना ही शुरू किया था।

दूसरी बात यह की इ-कॉमर्स एक उत्तराधुनिक व्यवसाय है जो आज के नये आयामों, नए परिवेश और नयी परिस्थियों का प्रतिनिधित्व करता हैं। हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने पहला एम बी ए प्रोग्राम 1908 में शुरू किया था और यह उस समय की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर की गयी एक अच्छी पहल थी। बड़े उद्योगों का बोलबाला हुआ करता था जिनकी जरूरतों के हिसाब से पाठ्यक्रमों का निर्माण किया जाता था। विडंबना यह है के कमोबेस वही पाठ्यक्रम आज भी  एम बी ए में पढाया जाता है जहाँ कंप्लायंस, क्वालिटी, ऑपरेशंस, मार्केटिंग, एच आर इत्यादि कुछ आधारभूत विषय हैं किसी व्यावसाय को समझने हेतु।

 इ-कॉमर्स का कांसेप्ट एक स्टार्ट अप कांसेप्ट   है जिसको चलने चलाने का कोई तय पैमाना नहीं होता, समय के साथ-साथ व्यवसाय सीखा जाता है और इसका विस्तार किया जाता है। चूक तब हो जाती है जब यह मान बैठते हैं की स्टार्ट अप व्यावसाय बड़े उद्योगों का ही छोटा स्वरुप है। अब फ्लिप्कार्ट को रिलायंस रिफाइनरी का छोटा रूप कैसे माना जा सकता है। उदहारण के लिए  रिलायंस रिफाइनरी जहाँ सबकुछ तय होगा जहाँ प्रोडक्शन के बाद क्वालिटी आएगा और उसके बाद सप्लाई और इस सिलसिले के अगले कुछ सालों का प्लान भी तैयार रहेगा। स्टार्ट अप में आप कैसे प्रोडक्शन शुरू करेंगे जब आपको पता ही नहीं है के उपभोक्ता कौन है? कोई बिज़नस मॉडल तैयार नहीं है। स्टार्ट अप की लड़ाई आर या पार की होती है जिसमे या तो आप पूरे जीत जाते हो या पूरी हार हो जाती है। यहाँ बिज़नस डेवलपमेंट से ज्यादा कस्टमर डेवलपमेंट पर ध्यान देना होगा तब बात बनेगी।

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