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सोमवार, 24 दिसंबर 2012

नयी व्याधि फोमो (FOMO): फियर ऑफ़ मिसिंग आउट

अरस्तु ने कहा था "मनुष्य स्वभाव से ही एक सामाजिक प्राणी है।" 

दो हज़ार साल से भी पहले कही गयी ये बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है। सामाजिक होना मानव जीवन के मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है जिसके आभाव में हम एक सामान्य जीवन की परिकल्पना भी नहीं कर सकते। पाषाण युग से अंतरिक्ष युग तक का लम्बा सफ़र मनुष्य इसी सामाजिक ताने-बाने को समझते-निभाते हुए करता रहा है। हर नयी खोज, चाहे वह आग हो या अंतरिक्षयान, का उपयोग उसने सामाजिक संरचना को मजबूत करने के लिए ही किया है।

ताना बाना 
हर पीढ़ी इस संरचना को अपने नजरिये से देखता है उसे अपने हिसाब से परिभाषित करता है। इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। आइये कुछ आंकड़ों पर नज़र डालें:
  • - विश्व की आधी से भी अधिक आबादी की उम्र 30 साल से कम है 
  • रेडिओ ने 5 करोड़ लोगो तक पंहुचने के लिए थे 38 साल
  • उतने ही लोगो तक टीवी 13 सालों में पंहुचा
  • अंतरजाल ने यह करतब 4 सालो मे कर दिखाया
  • एक साल से भी कम समय में फेसबुक 20 करोड़ लोगो तक पंहुचा
  • फेसबुक को अगर एक देश माना जाए तो यह चीन और भारत के बाद दुनिया का तीसरा सबसे ज्यादा    आबादी वाला देश होगा।
सबको पता है के फेसबुक एक सोशल  नेटवर्किंग वेबसाइट है और इसकी पूरी कार्यप्रणाली एक व्यक्ति को  दूसरे से जोड़ने पर निर्भर है। इस तरह के अनेक वेब साइट्स मानव रिश्तों को भुनाकर अपना धंधा चला रहे हैं। अगर हम यह मान बैठे की फेसबुक या ट्विटर या फिर लिंक्डइन ने सामाजिक रिश्तों का इजाद किया है या कोई चमत्कारी बदलाव किया है तो यह सर्वथा अनुचित होगा। मनुष्य हमेशा से प्रगतिवादी रहा है और हर काल खंड में उसने नया जुगाड़ लगाया है ताकि वह सामाजिक रिश्तों को और मजबूत कर सके। फेसबुक या ट्विटर या फिर लिंक्डइन इसी का विस्तृत रूप भर है।

समाज और तकनीक 
शैरी टुर्कले, जो MIT में सामाज और तकनीक के रिश्तों के बारे में पढ़ाती हैं, अपने हाल में ही प्रकाशित किताब 'अलोन टुगेदर' में यह समझाने का प्रयास करती हैं की आज की तकनीक ने सामाजिक रिश्तों को कैसे नाटकीय तौर पर प्रभावित किया है। वह कहती हैं के हम अभी तक यह स्पष्ट नहीं कर पाए हैं के हमें इस सोशल मीडिया से चाहिए क्या? और इस उलझन में हम कैसे अपने सामाजिक ताने बाने को ही जोखिम में डालते जा  रहे हैं। हमारी अगली पीढ़ी के हाथों में होगा के वह इस व्यक्तिगत अलगाव और सामाजिक जुडाव के उलझन को कैसे परिभाषित करे। अब हमारे लिए विकल्प यह नहीं है के हम इससे जुड़ें या न जुड़ें इसका इस्तेमाल हम सार्थक रूप से कैसे करें यह यक्ष प्रश्न है और हमें इसका हल ढूंढना ही होगा।

आपने कभी सोचा है के आखिरी बार आपने बिना TV चलाये कब खाना खाया था। ऐसी क्या जल्दी है जुड़ने की के हम गाडी चलाते हुए फ़ोन का इस्तेमाल करने से नहीं चूकते। किसी से कोई महत्वपूर्ण बात हो रही है और हर पांच मिनट में आपकी नज़र आपके फ़ोन पे चली जाती है। 
अंतर्द्वंद 
कोई मेसेज अगर नहीं आता तो आप सोचने लग जाते हो क्यूँ नहीं आया अबतक कुछ भी। कई बार तो एक लाइन पे बात हो रही है दूसरे फ़ोन की घंटी बजती है हम पहले बन्दे को होल्ड पे रख दूसरे फ़ोन को रिसीव कर लेते हैं मज़े की बात यह है के हमें इस बात का एहसास भी नहीं है के यह स्वाभाविक नहीं है। मनुष्य ने तकनीकें बनायी है अपनी सुविधा के लिए तकनीक को सर पे बिठाना कहाँ तक उचित है। अरे! सोशल मीडिया न हुआ शेर की सवारी हो गयी। किसी ने सही फरमाया है :

"अज़ीज़ इतना ही रखो के दिल संभल जाए,
अब इस कदर भी न चाहो के दम निकल जाए!..."

तकनीक जब तंदरुस्ती पर हावी हो जाए तो बड़ा अटपटा लगता है। हैं न? हमें पता भी नहीं हैं और हम गुलाम हुए जा रहे हैं। सोशल होना अच्छा है सोशल मीडिया का अतिशय प्रयोग होना सराहनीय नहीं कहा जाएगा। इसी अति प्रयोग का नाम है FOMO, एक ऐसी अवस्था जहाँ तकनीक से जुड़ाव ही जीवन का ध्येय लगता है और इस नकली जुडाव से दूरी की बात ही पीड़ित को तनावग्रस्त कर देता है। यह मोटे तौर पे एक  मनोवैज्ञानिक स्थिति है जिसका उपचार दवाइयों में न होकर यह समझने में है की इस जुडाव की सीमायें क्या हैं। मान  लीजिये आप रास्ते में चलते चलते गिर पड़े, आपने तुरंत ट्वीट भी कर दिया के आप गिर चुके हैं, लोगों ने जान लिया है के आप गिर पड़े हैं। आगे क्या? पता चला जो लोग आस पास हैं जिन्हें आपने कुछ नहीं कहा उन्होंने आपकी  मदद की आपको उठाया, आपकी तबियत पूछी।  


फोमो
सिद्ध हो चुकी बात है के किसी भी समाज का सर्वांगीण विकास तब तक सम्भव नहीं है जबतक उसकी कुछ नयी करने की पहल को प्रोत्सान नहीं मिले। यही बात व्यवसाय के लिए भी सटीक बैठता है। और क्रियात्मकता का विकास, नयी पहल करने की हिम्मत हममे तभी आ पाएगी जब हम खुद से बात कर पायेंगे। विवेकानंदजी ने कहा था खुद को पहचानना ही सच्चा ज्ञान है। अतः कभी कभी अपने आप को इस निरंतर प्रवाहित तकनीक के प्रवाह से विलग होकर भी देखना चाहिए। फेसबुक ट्विटर या लिंक्डइन अपडेट के परे जो दुनिया है उसका आनंद लेना हमें फिर से सीखना होगा।